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shubhranshu ji aabhar...
कुछ ऎसा ही मुगल काल के रंगीला बादशाह के लिये भी कहा जाता है कि उसने अपनी बेगम की इच्छा को पूरा करने के लिये चांदनी रात में यमुना में जा रही नाव को डुबवा दिया था.......
यहां.. मां... को शायद खुश नही रखा जा सकता था... आवाक् , भौंचक , बना कर भी रखा जा सकता था..
सौरभ जी ...उमाशंकर मिश्र जी...आदरणीय लाड़ीवाल जी..अलबेला खत्री जी.
ओह !! ... .
रुला दिया भाई जी..........
आँखों को नहीं आत्मा को
कितने ज़ालिम लोग हैं हम...........
उफ़ !
___पशु से ज्यादा पशु,,,,,,,,,,,
__इस पर बधाई देने के लिए भी पत्थर का कलेजा चाहिए...... !
आदरणीय अविनाश जी अत्यंत मार्मिक कथा नेत्र भर आये
स्वागतम मित्रवर !
आदरणीय बागडे साहब ! यह सिर्फ एक लघुकथा ही नहीं .....वरन आज के दौर की सच्चाई है| वाकई आज, आदमी के अंदर का इंसान तो कब का मर चुका..... क्या कहूँ इस हैवानियत के ठेकेदार रेंजर को..... इंसानियत शर्मसार है !
इस सफल लेखन पर बधाई स्वीकारें ! सादर
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