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खिलौना........लघुकथा.

रेंजर साहब की पत्नी आगन में बैठकर अपने तीन साल के बेटे को खिला रही थी.सामने के पेड़ पर एक बंदरिया अपने छोटे से बच्चे को छाती से  चिपकाए इधर-उधर कूद-फांद रही थी.बेटे की नज़र उस बंदरिया और उसके बच्चे पर पड़ी.वाह माँ से जिद करने लगा कि उसे खेलने के लिये बंदर का बच्चा चाहिए. माँ ने पिता के आने के नाम पर बेटे को बहलाए रखा.लंच पर रेंजर साहब आये.आते ही पत्नी ने फ़रमाया :
'मुन्ने को सामने के पेड़ पर रहने वाली बंदरिया का बच्चा खेलने के लिये चाहिए".
"इतनी सी बात है"
"अभी लो' ,कह कर रेंजर साहब अपनी बन्दूक  लेकर बाहर लपके.
"धांय....!!!!",बन्दूक  से शोला निकला.
कुछ देर बाद अर्दली बंदर के बच्चे को लेकर साहब के पीछे-पीछे घर में दाखिल हुआ. क़तर निगाहों से सहमा हुआ वाह बंदर का बच्चा अपनी माँ बंदरिया की मृत देह को घसीट कर कम्पाउंड  के बाहर जाते हुये देख रहा था.मुन्ने को उसका खिलौना मिल गया.मां भी अपने बेटे की ख़ुशी देख कर खुश थी और रेंजर साहब अपने पराक्रम पर  गर्व महसूस कर रहे थे.
------------------------------------
अविनाश बागडे.

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Comment by AVINASH S BAGDE on July 24, 2012 at 8:58pm

shubhranshu ji aabhar...

Comment by Shubhranshu Pandey on July 24, 2012 at 1:36pm

कुछ ऎसा ही मुगल काल के रंगीला बादशाह के लिये भी कहा जाता है कि उसने अपनी बेगम की इच्छा को पूरा करने के लिये चांदनी रात में यमुना में जा रही नाव को डुबवा दिया था.......

यहां.. मां... को शायद खुश नही रखा जा सकता था... आवाक् , भौंचक , बना कर भी रखा जा सकता था..

Comment by AVINASH S BAGDE on July 23, 2012 at 9:54am

सौरभ जी ...उमाशंकर मिश्र जी...आदरणीय लाड़ीवाल  जी..अलबेला खत्री जी.

मेरी रचना का मर्म आपने समझा...शब्दों से सहलाया...कर्म सार्थक हुआ..
ह्रदय  से आभार...

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 22, 2012 at 11:37pm

ओह !! ... .

Comment by Albela Khatri on July 22, 2012 at 11:14pm

रुला दिया भाई जी..........
आँखों को नहीं आत्मा को
कितने ज़ालिम लोग हैं हम...........
उफ़ !
___पशु से ज्यादा पशु,,,,,,,,,,,

__इस पर बधाई देने के लिए भी पत्थर का कलेजा चाहिए...... !

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 22, 2012 at 11:02am
धनि-मानी लोग, पुलिस या रेंजर और शाही खानदान के लोग वर्षों 
से अबोध, मासूम बेजुबान और बेसहारा को मच्छर की तरह या 
खिलौना समझते आये है | उनके दिल कहाँ है ? यह मार्मिकता  
इस कहानी की सार्थकता है | बहुत बधाई आद. अविनाश बागडे जी |
Comment by UMASHANKER MISHRA on July 22, 2012 at 8:48am

आदरणीय अविनाश जी अत्यंत मार्मिक कथा नेत्र भर आये

Comment by Er. Ambarish Srivastava on July 21, 2012 at 11:28pm

स्वागतम मित्रवर !

Comment by AVINASH S BAGDE on July 21, 2012 at 10:44pm
अम्बरीश भाई,
मेरी इस लघुकथा पर जो सटीक प्रतिक्रिया दी उसने मेरे इस लेखन को सार्थकता प्रदान की है
आभार भाई जी.
Comment by Er. Ambarish Srivastava on July 21, 2012 at 8:49pm

आदरणीय बागडे साहब ! यह सिर्फ एक लघुकथा ही नहीं .....वरन आज के दौर की सच्चाई है| वाकई आज,  आदमी के अंदर का इंसान तो कब का मर चुका.....  क्या कहूँ इस हैवानियत के ठेकेदार रेंजर को..... इंसानियत शर्मसार है !

इस सफल लेखन पर बधाई स्वीकारें ! सादर

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