मित्रों, एक ताज़ा ग़ज़ल पेश -ए- खिदमत है ....
जाल सय्याद फिर से बिछाने लगे
क्या परिंदे यहाँ आने जाने लगे
खेत के पार जब कारखाने लगे
गाँव के सारे बच्चे कमाने लगे
फिर से दहला गए शहर को चंद लोग
हुक्मरां फिर कबूतर उड़ाने लगे
वो जो इस पर अड़े थे कि सच ही कहो
मैंने सच कह दिया, तिलमिलाने लगे
वक्त की पोटली से हैं लम्हात गुम
होश अब भी तो मेरा ठिकाने लगे
चंद खुशियाँ जो मेहमां हुईं मेरे घर
रंजो गम कैसा तेवर दिखाने लगे
मेरे अशआर में जाने क्या बात थी
लोग तडपे, मगर मुस्कुराने लगे
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बह्र -ए- मुतदारिक मुसम्मन सालिम
Comment
शुक्रिया सौरभ जी
अनेकानेक शुक्रिया
माला बनाने के क्रम में मोती की जगह शेर पिरो दिये. वाह ! लो, ग़ज़ल हो गयी. क्या कहा है आपने वीनस जी और क्या ही खूब कहा है. भाव हैं, वज़्न है और तेवर है. इन अश’आर को विशेष रूप बार-बार याद कर रहा हूँ.
वो जो इस पर अड़े थे कि सच ही कहो
मैंने सच कह दिया, तिलमिलाने लगे
मेरे अशआर में जाने क्या बात थी
लोग तडपे, मगर मुस्कुराने लगे
डॉ सूर्या बाली जी
अम्बरीश श्रीवास्तव जी
आदरणीय योगराज जी
संदीप जी
सुरेन्द्र जी
विवेक जी
और
उमाशंकर जी
आप सभी ने ग़ज़ल को सराहा और इतना मान दिया इस जर्रा नवाजी के लिए तहे दिल से शुक्रिया
वक्त की पोटली से हैं लम्हात गुम
होश अब भी तो मेरा ठिकाने लगे....क्या बात है वीनस जी इतनी गहराई की उम्मीद आपसे ही की जा सकती है
समय हाथ से निकला जा रहा है फिर भी मै होश में नहीं आया
/जाल सय्याद फिर से बिछाने लगे
क्या परिंदे यहाँ आने जाने लगे/-
बढ़िया मतला..
/खेत के पार जब कारखाने लगे
गाँव के सारे बच्चे कमाने लगे/-
बाल मजदूरी पर अच्छा शे'र..
/फिर से दहला गए शहर को चंद लोग
हुक्मरां फिर कबूतर उड़ाने लगे/-
वाह.. आज के सियासी माहौल पर फिट बैठता और मेरी नज़र में हासिल-ए-ग़ज़ल शे'र.
/वो जो इस पर अड़े थे कि सच ही कहो
मैंने सच कह दिया, तिलमिलाने लगे/-
एकदम सटीक शे'र. आजकल सच कौन सुन पाता है साहब.. राहत इन्दौरी साहब के दो शे'र याद आते हैं कि-
"झूठों ने झूठों से कहा है, सच बोलो-
सरकारी ऐलान हुआ है, सच बोलो-
घर के अन्दर झूठों की एक मण्डी है
दरवाजे पर लिखा हुआ है, सच बोलो-"
/वक्त की पोटली से हैं लम्हात गुम
होश अब भी तो मेरा ठिकाने लगे/-
मिसरा-ए-उला कमाल का हुआ है, शायद मेरी समझ का फेर हो, पर सानी अपेक्षाकृत कमजोर सा लग रहा है.
/चंद खुशियाँ जो मेहमां हुईं मेरे घर
रंजो गम कैसा तेवर दिखाने लगे/-
बहुत खूब.. अच्छा शे'र है.
/मेरे अशआर में जाने क्या बात थी
लोग तडपे, मगर मुस्कुराने लगे/-
वाह.. क्या खूब है.. इसे कहते हैं 'क्लोज-अप कॉन्फिडेंस' वाला शे'र. :)
एक अच्छी ग़ज़ल की प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
फिर से दहला गए शहर को चंद लोग
हुक्मरां फिर कबूतर उड़ाने लगे
मेरे अशआर में जाने क्या बात थी
लोग तडपे, मगर मुस्कुराने लगे
फिर से दहला गए शहर को चंद लोग
हुक्मरां फिर कबूतर उड़ाने लगे----- अय-हय-हय क्या बात है जनाब!! हक़ीक़त की क्या मुकम्मल तस्वीर पेश की!
मेरे अशआर में जाने क्या बात थी
लोग तडपे, मगर मुस्कुराने लगे----- भई हम भी उन्हीं लोगों में से हैं! :-)
लाजवाब-बेमिसाल अश'आर से लैस एक जानदार-शानदार ग़ज़ल की पेशकश पर दिली मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएं मित्र!
भई वाह, बेहद खूबसूरत ग़ज़ल कही है वीनस जी. ढेर सारी दाद पेश है - स्वीकार करें.
//फिर से दहला गए शहर को चंद लोग
हुक्मरां फिर कबूतर उड़ाने लगे
वो जो इस पर अड़े थे कि सच ही कहो
मैंने सच कह दिया, तिलमिलाने लगे//
वाह वीनस भाई वाह ..........बहुत बेहतरीन व सामयिक गज़ल कही है आपने .........एक एक शेर अपने आप में बेमिसाल है ...बहुत बहुत मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं .....
वीनस भाई बहुत उम्दा ग़ज़ल से नवाजा है इस मंच को आपने ...एक एक शेर माशाल्लाह लाजवाब है ...खास कर ये शेर तो ग़ज़ब का है भाई...
वो जो इस पर अड़े थे कि सच ही कहो
मैंने सच कह दिया, तिलमिलाने लगे॥
दिली दाद कुबूल करें !!
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