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मिलन की बात है असंभव

तुम कंचन हो,

मै कालिख हूँ!

तुम पारस, मै

कंकड़ इक हूँ!

 

तुम सरिता हो,

मै कूप रहा!

तुम रूपा, इत

ना रूप रहा!

जो मानव नहीं है उसको, देव की पांत है असंभव!

है तुलना न अपनी कोई, मिलन की बात है असंभव!

 तुम ज्वाला हो,

मै चिंगारी!

मै टिमटिम, तुम

आभाकारी!

 

तुम चंदा हो,

मै हूँ जुगनू!

तुम तेजपुंज,

मै भुकभुक हूँ!

बना हूँ धूप के लिए मै, छांव की रात है असंभव!

है तुलना न अपनी कोई, मिलन की बात है असंभव!

तुम जो भी हो,

मै जो भी हूँ!

कुछ और कहो,

तो वो भी हूँ!

 

तुम सबकुछ हो,

मै कुछ भी नहीं!

पर दिल की है,

ये बात सही!

ये दिल चाहता है तुमको, जानता साथ है असंभव! 

है तुलना न अपनी कोई, मिलन की बात है असंभव!

है प्यार तुम्हे

करता ये दिल!

पर कहने में,

डरता ये दिल!

 

क्या पता कि तुम

अपनाओगी!     

या सदा लिए

ठुकराओगी!

अपने मिलन की खातिर ये, बने हालात हैं असंभव!

है तुलना न अपनी कोई, मिलन की बात है असंभव!

तुम दिल में हो,

ये बहुत मिला!

ना गम मुझको,

खुश हूँ न गिला!

 

बस देख तुम्हे,

मै रह लूँगा!

दूरी ताउम्र,

मै सह लूँगा!

पर भूल जाऊं तुमको, ये भी तो नहीं है संभव!

है तुलना न अपनी कोई, मिलन की बात है असंभव!

                                   -  पियुष द्विवेदी ‘भारत’

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Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on September 12, 2012 at 10:04am

Saurabh Pandey

आप प्रबुद्ध हैं! मुझसे बेहतर जानते हैं! काव्य की सबसे बड़ी विवशता गागर में सागर का आयोजन ही है! कम शब्दों में व्यापक भाव सम्प्रेषण, जिस कारण कई बार चयनित शब्दों से भी समझौता करना पड़ जाता है! अक्षर दोष से अवगत कराएं!


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 12, 2012 at 10:01am

अक्षरी दोष हमारी कमियां हैं इसे काव्य की विवशता के साथ युग्मित करना स्वयम के साथ घोर अन्याय होगा, दोष, दोष है जिसे ढककर नहीं अपितु उपचार कर दूर करना होगा |

Comment by seema agrawal on September 12, 2012 at 9:58am

पीयूष जी मुझे ऐसा  ज्ञात नहीं है कि हिंदी कविता में मात्रिक तुक का विधान या सहूलियत है ...यदि ऐसा है तो ठीक है आप की रचना के लिए पुनः बधाई ...... सौरभ जी से मार्ग दर्शन अपेक्षित  है इस सन्दर्भ में 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 12, 2012 at 9:50am

जानना वस्तुतः तथ्यपरक होगा, पियुषजी, कि काव्य की ऐसी क्या-क्या विवशताएँ होती हैं ?  साथ ही, किसी प्रस्तुति (रचना अथवा प्रतिक्रिया) हेतु अक्षरी दोष को ढोने की कैसी विवशता हो सकती है?

आपका सहयोग उत्साह संचरण का कारण बने, पियुषजी.

Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on September 12, 2012 at 9:43am

Saurabh Pandey

सादर सहमत हूं... पर काव्य की कुछ विवशताएँ भी होती हैं!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 12, 2012 at 9:39am

रचनाधर्मिता व्यापकता हेतु अध्ययन की मांग करती है. अक्षरी दोष से छुटकारा पाने का यह सबसे सरल उपाय है, पियुषजी.

Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on September 12, 2012 at 9:36am

Saurabh Pandey

आप जैसे प्रबुद्ध लोगों का सानिध्य रहा तो सुधार अवश्य होगा! धन्यवाद.....!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 12, 2012 at 9:32am

प्रयासरत रहें पियुषजी, तथा अपनी रचना की संप्रेषणीयता के प्रति संवेदनशील रहें. अक्षरी दोष आदि से बचना पहला दायित्त्व है.

रचना प्रस्तुत करने के लिये हार्दिक बधाई..

Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on September 12, 2012 at 9:10am

Ambarish Srivastava

बहुत बहुत धन्यवाद........!

Comment by Er. Ambarish Srivastava on September 12, 2012 at 9:07am

//तुम सरिता हो,

मै कूप रहा!

तुम रूपा, इत

ना रूप रहा!//

अत्यंत सुन्दर रचना रची है आपने ! इस सद्प्रयास के लिए बधाई मित्रवर !

कृपया ध्यान दे...

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