जिन्दगी थोड़ी बाकी थीकि गुज़र गई
नदी समन्दर के पास आकर मर गई
रात आईतो इमरोज़ किधर चला गया
दिन निकला तो लंबी रात किधर गई
आज यूँ अकेला हूँ मैं अपनों के बीच
इक भीड़ में मेरी तन्हाई भी घर गई
दरोदीवार पुतगए बरसातकी सीलनसे
अबके बरस छत की कलई उतर गई
जो लोग तेज थे उठा लेगए सब ईंटें
दीवार खामोश अपने कदसे उतर गई
हवाओंने गिराए जो पके फल धम्मसे
इक अकेली चिड़िया शाख पे डर गई
मैं दूर शह्रमें कईबार तन्हा बीमाररहा
सालमें कभीकभार मेरेगाँव खबर गई
मैं अपने दर्दको सहता उम्र खोता रहा
ज़िंदगी गिनगिनके पायदान उतर गई
मैं इतना भी न भरा था अपने दुखसे
आँख ही थी मेरी, तेरे गमसे भर गई
बादलका इकरेज़ा बन पानी अर्श गया
इक नदी पहाड़ोंसे नीचे मैदां उतर गई
दराज़ खोलकर ढूँढता था तेरी तस्वीर
न मिली, पे तेरी चूड़ियों पे नज़र गई
कहाँ है मयस्सर सबको घर जीने को
गरीबकी डोली थी रास्ते में उतर गई
राज़ अब कयाम करते हैं अपनी सोचो
बुजर्गोंकी कमाईथी तो पुस्त संवर गई
© राज़ नवादवी
भोपाल, ११.४१ रात्रिकाल, १७/०९/२०१२
Comment
दराज़ खोलकर ढूँढता था तेरी तस्वीर
न मिली, पे तेरी चूड़ियों पे नज़र गई खूबसूरत गजल राज़ जी ,हार्दिक बधाई
ज़माने की दुश्वारियों से पीछा छुड़ाकर मैं जब
ऑनलाइन हुआ तो राज से दोस्ती हो गयी.
तेरी ये ग़ज़ल जब मैंने देखी ए दोस्त
ज़िन्दगी की कुछ तो कमी दूर हुयी......... प्रमेन्द्र डाबरे
आदरणीय योगराज जी, आपकी दादोतःसीन सर आँखों पे. बाशुक्रिया कबूल फरमाता हूँ.
बेहद खूबसूरत कलाम राज़ साहिब, यूं तो सभी अश'आर एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर हैं मगर मंदर्जा दो शेअर सीधे दिल में उतर गए,
//'दरोदीवार पुतगए बरसातकी सीलनसे
अबके बरस छत की कलई उतर गई //
//जो लोग तेज थे उठा लेगए सब ईंटें
दीवार खामोश अपने कदसे उतर गई //
इस शानदार ग़ज़ल के लिए मेरी दिली मुबारकबाद कबूल फरमाएं.
आदरणीय लोकेश जी, आपकी प्रशंसा और वक्तव्य का बहुत बहुत धन्यवाद, बहुत हौसला अफजाई हुई. सादर!
कहाँ है मयस्सर सबको घर जीने को
गरीबकी डोली थी रास्ते में उतर गई
बहुत खुबसूरत रचना ,दिलमे गहरी पैठ बनाके दिमाग को कुछ सोंचने को मजबूर करती हुयी, गजल के सार्थ उद्देश्य के साथ , बहुत बहुत साधुवाद....
आदरणीया राजेश जी, बहुत खुशी हुई ये जानकार कि आपको हमारी ये गज़ल पसंद आयी. आपका बहुत बहुत शुक्रिया.
करीब एक महीना अकेला बैंगलोर रहकर भोपाल घर आया था.बैंगलोर में ऑफिस के बाद की तन्हाई भी इस कदर कि पूरी बिल्डिंग में मै इक बशर, न कोई टीवी और न कोई तफ़रीह का दूसरा ज़रिया. मुझे जैसे तन्हाई के साथ जीने की आदत सी हो गई थी. घर आकर अपनों के बीच भी ऐसा लग रहा था कि कहीं अंदर मैं अभी भी अकेला हूँ, और तब बैंगलोर की उस तन्हाई की याद हो आई जो अब मेरे पास नहीं थी.
जिस शेर का आपने ज़िक्र किया है उसका पसेमंज़र बस यही है.
-राज़
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है राज नवाद्वी जी सभी लाजबाब शेर हैं अंतिम तो सुभान अल्लाह
बुजर्गोंकी कमाईथी तो पुस्त संवर गई
दराज़ खोलकर ढूँढता था तेरी तस्वीर
न मिली, पे तेरी चूड़ियों पे नज़र गई---ये शेर भी गजब है किसकी तारीफ करूँ किसकी नहीं सभी एक से बढ़कर एक शेर हैं
आज यूँ अकेला हूँ मैं अपनों के बीच
इक भीड़ में मेरी तन्हाई भी घर गई------
ये शेर कुछ उलझा हुआ लग रहा है या मेरी समझ का फर्क है ???
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