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जहाँ से यथार्थ की दहलीज

खत्म होती है

वहाँ से हसरतों का

सजा धजा बागीचा

शुरु होता है

जब भी कदम बढ़ाया

दहलीज फुफकार उठती है

यह कहकर कि

‘मत लांघना मुझे

मेरे भीतर सुरक्षित हो तुम

मेरे ही भीतर संरक्षित हो तुम

यह असत्य भी तो नहीं

इस दहलीज के भीतर

एक मकान है

जहाँ सुरक्षित है मेरी काया

जहाँ छू भी नहीं पता

कोई बुरी नजर का साया

और अस्तित्व?

हाँ!  अस्तित्व

सुरक्षित है

अलमारी के किसी रैक में

बिस्तर के किसी कोने में

फिर भी .....

हाँ फिर भी ..

लांघना है यह दहलीज

ताकि गिरवी रखी नीन्द

खौफ के उस निगोड़े महाजन से

छुड़ा सकूँ

जानती हूँ मैं भी

आसमान की सैर

उंगली पकड़्कर

नहीं होती

इसके लिए तो

ज़ज्बे का पंख उगाना होता

अब कोई मेरे पीछे मत आना

मुझे अब पंख उगाना है

और आसमान की सैर पर जाना है

दहलीज तुम यहीं रहना

दरवाजे के कलेजे से

चिपकी हुई

लौटूंगी मैं

अपने साथ एक घर लेकर

तुम यहीं रहना ...

********

गुल सारिका 

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Comment

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Comment by pawan amba on May 17, 2013 at 8:30pm

हाँ!  अस्तित्व

सुरक्षित है

अलमारी के किसी रैक में

बिस्तर के किसी कोने में.......

दहलीज तुम यहीं रहना

दरवाजे के कलेजे से

चिपकी हुई

लौटूंगी मैं

अपने साथ एक घर लेकर

तुम यहीं रहना ...kya baat hai didi.....aap to bs aap hi ho...

Comment by Ashok Kumar Raktale on October 2, 2012 at 3:47pm

अब कोई मेरे पीछे मत आना

मुझे अब पंख उगाना है

और आसमान की सैर पर जाना

सुन्दर रचना. बधाई.

Comment by Bhawesh Rajpal on September 24, 2012 at 4:43pm

 

आसमान की सैर

उंगली पकड़्कर

नहीं होती

इसके लिए तो

ज़ज्बे का पंख उगाना होता

अब कोई मेरे पीछे मत आना

मुझे अब पंख उगाना है

अति सुन्दर ! बहुत-बहुत बधाई !

Comment by राज़ नवादवी on September 24, 2012 at 1:16pm

आपकी कविता ने जैसे सचमुच सीमाओं की देहलीज़ पार कर ली हो और सीधे सम्प्रेषण के पंखों पे उस निर्वात तक जा पहुँची जहाँ यथार्थ के अकिंचन पर बाध्यकारी सचों की मूर्तियां नहीं सजी हैं. सुन्दर शब्दों की भावों में पिरोई लड़ियाँ, बधाई हो सारिका जी! 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 24, 2012 at 12:58pm

गुलसारिकाजी, आपकी प्रस्तुत रचना हर कुछ ऐसा साझा करती है जो आम नवयुवती के उद्गार हैं. किन्तु, आपके कहने का अंदाज़ भला लगा.  संवेदना और शब्द-संप्रेषण को आपने रचना के अंत तक संतुलित रखा है. आपकी अन्य रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी.

हार्दिक बधाइयाँ.

Comment by Brajesh Kant Azad on September 23, 2012 at 11:05pm

आदरणीया गुल सारिका जी बहुत बधाई, बहुत ही सरल और सहज वर्णन किया है मन के डर और उसको वश में करने का.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 23, 2012 at 6:49pm

//लांघना है यह दहलीज

ताकि गिरवी रखी नीन्द

खौफ के उस निगोड़े महाजन से

छुड़ा सकूँ//

आदरणीया गुल सारिका जी, बहुत ही उम्दा कथ्य आपकी इस रचना में निहित है, एक सरल प्रवाह रचना को और भी सौंदर्य प्रदान करता है | बहुत बहुत बधाई इस अभिव्यक्ति पर, आपकी और प्रस्तुति तथा अन्य साथियों की रचनाओं पर आपके विचारों का इस मंच पर स्वागत है |

Comment by Gul Sarika Thakur on September 23, 2012 at 6:31pm

Adarniya Laxman prasaad Ladiwala jee....is rachna ko parhne aur us pr wichaar krne ke bahut bahut abhari hun ... lekin dahleez ke andar sadaiv ghr angan nahi hota ...agar hota to ghr lekar lautne ki baat hi kahee jati ...ghr to dil me bante hain aur dil me hi toot te hain .... 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 23, 2012 at 6:19pm

बहुत सुन्दर बेहतरीन अभ्व्यक्ति जब अलमारी के किसी कोने  में सजा हुआ  अस्तित्व घुटन और दमन महसूस करने लगे तो दहलीज तो लांघनी ही पड़ेगी वाह क्या जबरदस्त भाव बधाई आपको 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 23, 2012 at 3:40pm

गुल सारिका झा जी रचना बेहद सुन्दर,  हार्दिक बधाई, पर एक सुझाव है -इस दहलीज के भीतर एक मकान है,

के बजाय दहलीज के भीतर "घर आँगन है" कहना ज्यादा ठीक है  | 

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