लेख:
हमारे सोलह संस्कार
संजीव 'सलिल'
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अर्थ:
'संस्कारो हि नाम संस्कार्यस्य गुणकानेन, दोषपनयेन वा' अर्थात गुणों के उत्कर्ष तथा दोषों के अपकर्ष की विधि ही संस्कार है।
शंकराचार्य के ब्रम्ह्सूत्र के अनुसार किसी वस्तु, पदार्थ या आकृति में गुण, सौंदर्य, खूबियों को आरोपित करना / बढ़ाना तथा उसकी त्रुटियों, कमियों, दोषों को हटाने / मिटने का नाम संस्कार है।
संस्कृत भाषा में प्रयुक्त क्रिया (धातु) 'कृ' के पूर्व सम उपसर्ग तथा पश्चात् 'आर' कृदंत के संयोग से बने इस शब्द का अर्थ अधिक सुन्दर, आकर्षक, उपयोगी बनाने से है।
भाषा को व्याकरणबद्ध कर शुद्धता से प्रयोग करना, कविता को पिन्गलीय नियमों के अनुरूप ढालना अथवा मनुष्य को अनुशासित, सुशिक्षित बनाना उसका संस्कार करना ही है।
अंगिरा स्मृति के अनुसार:
'चित्रं क्रमादनेकै: रंगै: उन्मील्यते शनैः।
ब्रम्हण्यमपि तद वद स्यात सन्सकारै: विधिपूर्व म्है। ।
अर्थात जिस प्रकार अनेक रंगों के र्पयोग से कोइ चित्र बनाया जाता है, उसी प्रकार विविध संकरों से मनुष्य को सँवारा-सुधार और योग्य बनाया जाता है।
महत्त्व:
भारतीय संस्कृति में संकरों का अत्यधिक महत्त्व है। जन्म पूर्व से मृत्यु-पश्चात् तक 16 पड़ावों पर विधि सम्मत, विधान सम्मत संस्कारों का विधान है जो मानव जीवन को परिमार्जित, परिष्कृत और अनुशासित बनाते हैं। संस्कारों से मनुष्य द्विजत्व को प्राप्त करता है 'संस्कारात द्विज उच्यते'।
मानवीय प्रकृति में परिवर्वन कर उसे बेहतर बनान ही संस्कारित करना है। युगदृष्टा ऋषि-मुनियों ने मनुष्य के जन्म पूर्व से मृत्यु पश्चात् तक जीवन प्रक्रिया की गतिशीलता का विचार कर पूर्ण वैज्ञानिक आधार पर मानव जीवन की अवधि 100 वर्ष मानकर उसे 16 ऐसे चरणों में विभक्त किया जहाँ तीव्र परिवर्तन हारमोंस के परिवर्तन या अन्य कारणों से होते हैं, इन चरणों के आरंभ में विशिष्ट क्रियाएँ सम्पादित किया जाना प्रावधानित किया। यही संस्कार हैं। सनातन भारतीय विचारधारा ने मृत्यु को जीवन का अंत नहीं परिवर्तन व परिष्कार माना। पौर्वात्य मनीषा ने आत्मा का अस्तित्व जन्म से पूर्व तथा मृत्यु के पश्चात् भी स्वीकारते हुए मृत्यु को परिवर्तन या नवीनीकरण की प्रक्रिया मात्र माना। सोलह संस्कार इस अध्यात्मिक-वैज्ञानिक चिंतन के अनुरूप क्रियाएँ हैं। सोलह संस्कार निम्न हैं: 1. गर्भाधान, 2. पुंसवन, 3 सीमंतोन्नयन, 4. जात कर्म, 5. नामकरण, 6. निष्क्रमण, 7. अन्नप्राशन, 8. कर्णछेदन, 9. चूड़ाकरण, 10. उपनयन, 11. विद्यारम्भ, 12. प्रत्यावर्तन, 13 विवाह, 14. वानप्रस्थ। 15. सन्यास, 16. अंत्येष्टि।
1. गर्भाधान संस्कार:
जन्म पूर्व का यह संस्कार इस अवधारणा पर आधारित है कि माता-पिता द्वारा संतानोत्पत्ति दैहिक मिलन पर आधारित जैव वैज्ञानिक प्रक्रिया मात्र नहीं है। यह दो देहों में निवासित दो आत्माओं का सम्मिलन है। इसका उद्देश्य केवल काम-पूर्ति न होकर वंश-वृद्धि तथा जगत के सञ्चालन हेतु एक अन्य आत्मा का जन्म हेतु आव्हान करना है। यौन संबंधों को हेय, वासनात्मक अथवा गोपनीय न मानकर जीव वैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक क्रिया कहा गया। इसके विधिवत अध्ययन-मनन की व्यवस्था कामशास्त्र में की गयी थी। गुरुकुलों तथा राजमहलों में भी वे प्राप्ति पर आवश्यकतानुसार इस विषय के मर्यादित शिक्षण की व्यवस्था थी। खजुराहो के मंदिर इस स्वस्थ्य चिन्तन के प्रमाण हैं जो काम को राम तक ले जाने का माध्यम मानता रहा। शिवलिंग-जिलहरी पूजन परा-पुरुष तथा आदि-प्रकृति के सम्मिलन का मान्य प्रतीक रहा। किसी एक पक्ष को श्रेष्ठ तथा दूसरे को हेय न मानकर दोनों को समान महत्त्व दिया गया। प्रकृति-पुरुष के मिलन से नव सृजन, तद्जनित स्त्री-पुरुष संबंधी समस्याओं का अध्ययन तथा समाधान का शिष्ट-शालीन विधियाँ व प्रक्रियाएँ तलाशी गयीं जो कालांतर में वाममार्गियों द्वारा दूषित की जाकर योनि पूजन तथा लिंग पूजन के रूप में प्रचलित हुईं। सात्विक चिन्तकों आराधकों ने कुमारी पूजन (नव दुर्गा) तथा शौर्यपर्व (विजयदशमी) के माध्यम से जन्म के दोनों माध्यमों को प्रतिष्ठा दी। शिव-शिवा तथा कृष्ण-राधा के सम्मिलित अर्ध नारीश्वर बिम्ब का चित्रण स्त्री-पुरुष की समानता का ही द्योतक है।
गर्भाधान संस्कार के विधानानुसार भावी माता-पिता वंश-वृद्धि तथा विश्व कल्याण की कामना से एकत्र होकर परमपिता का आव्हान कर प्रार्थना करें कि उनकी मनोकामना पूर्ति हेतु वांछित गुण-संपन्न आत्मा संतति के रूप में जन्म ले। इस हेतु शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र व सुखद वातावरण में काम-आव्हान कर, दम्पति से द्वैत मिटाकर एक होने की अपेक्षा की गयी। किसी उद्देश्यपूर्ति हेतु वैदिक विधि-विधानों, औषधियों, शल्यक्रियाओं तथा मंत्रोपचारों से विशेष गुण या योग्यता संपन्न संतान का आव्हान विशुद्ध वैज्ञानिक पद्धति थी जिसकी सफलता सुनिश्चित थी। दानव शक्तियों के वध हेतु श्री राम, श्री कृष्ण तथा द्रोण से बदला लेने हेतु द्रुपद द्वारा द्रौपदी की प्राप्ति गर्भाधान संस्कार का महत्त्व प्रतिपादित करने के लिए पर्याप्त उदाहरण हैं। कार्तिकेय का जन्म वर्तमान सरोगेट मदर तथा कौरवों का जन्म टेस्ट ट्यूब बेबी पद्धतियों से साम्य रखता है। गर्भधारण तथा प्रसव काल में मधुर संगीत का प्रभाव विज्ञान स्वीकार चुका है। गायत्री मन्त्र श्रवण से उच्च रक्तचाप में कमी होना भी चिकित्सक परख चुके हैं। वर्तमान में इस संस्कार से नव दंपति प्रायः अनभिज्ञ होते हैं।
2. पुंसवन संस्कार:
गर्भाधान संस्कार का तीसरा माह पूर्ण होने पर अथवा किसी कारण से न हो सकने पर जन्म के समय यह संस्कार संपन्न किया जाता है। इसमें वैदिक मन्त्रों द्वारा देवी शक्तियों का आव्हान कर सन्तान के शतजीवी होने की कामना की जाती है। आजकल इसका रूप चिकत्सकों से निरीक्षण कराकर वांछित औषधि सेवन तक सीमित रह गया है। इस काल में विषय विशेष का अध्ययन / चर्चा माता-पिता द्वारा हो तो सन्तान भी ग्रहण करती है। धार्मिक-अध्यात्मिक चर्चा से संतान में सात्विक भाव का रोपण होता है। भावी माता के आहार, विचार, आचार का गर्भस्थ शिशु पर प्रभाव होता है। इस संस्कार कौद्देश्य गर्भ धारण के स्थायित्व की घोषणा तथा तद्जनित सावधानियों के प्रति सजग करना प्रतीत होता है।
3 सीमंतोन्नयन संस्कार:
इस संस्कार के दो उद्देश्य वर्णित हैं- 1. गर्भवती स्त्री की भूत-प्रेतादि अशरीरी शक्तियों से रक्षा तथा 2. गर्भवती को प्रसन्न रखने के लिए श्रृंगार। सूत्रकार गोमिल के अनुसार यह संस्कार बच्चे की नार काटने और प्रथम स्तनपान के समय या पश्चात् किया जाना चाहिए।
4. जात कर्म संस्कार:
बच्चे के जन्म के तुरंत पश्चात् किये जाने वाले इस संस्कार में बच्चे का पिता बच्चे को घी तथा शहद का सेवन करता है। घी तथा शहद (प्राकृतिक ग्लूकोस) स्वास्थ्यवर्धक हैं। इस संस्कार का आशय पिता में यह भावना उत्पन्न करना है कि अब उस पर जातक (बच्चे) के भरण-पोषण का दायित्व है। इसके अतिरिक्त समाज तथा सम्बन्धियों में बच्चे का परिचय पिता के नाम से हो जाता है।
5. नामकरण संस्कार::
जातक के जन्म-समय के आधार पर उसकी राशि निश्चित हो जाती है। याज्ञवल्क्य ऋषि के अनुसार जन्म के 11 वें दिन (मनु के अनुसार 10 वें दिन) राशि के अनुसार शुभ अक्षर (वर्ण) से प्रारंभ होने वाला नाम जातक को दिया जाता है जो आजीवन उसकी पहचान कराता है। सामान्यतः किसी देवी-देवता, महापुरुष, ऋषि, संत, पूर्वज, प्राकृतिक वस्तु, ऋतु, स्थान आदि पर नामकरण किया जाता है।
6. निष्क्रमण संस्कार:
जन्म के एक माह पश्चात् गृह्यसूत्र के अनुसार सर्वप्रथम सूर्य (गोमिल के अनुसार चन्द्र) का दर्शन कराने के बाद ही बच्चे को पहली बार घर से बाहर निकाला जाता है। सूर्य ऊर्जा का स्रोत तथा सौर मंडल का अधिपति है। सूर्य किरणों का सेवन बच्चे के लिए लाभदायक होता है इसीलिए सूर्या दर्शन का प्रावधान उचित प्रतीत होता है जबकि जन्म समय की गृहस्थिति के अनुसार चन्द्र प्रधान होने पर चन्द्र दर्शन का प्रावधान किया जाना अनुमानित है।
7. अन्नप्राशन (पसनी / चटावन) संस्कार:
माँ के गर्भ में 9 माह तक जल तथा वायु सेवन कर जन्में तथा जन्म के बाद के दुग्ध का पान कर रहे शिशु के जन्म से 6 माह पूर्ण होने पर यह संस्कार किये जाने का प्रावधान है। इस संस्कार का आशय यह है की अब बच्चे की पाचन शक्ति के तथा शरीर के विकास को देखते हुए उसे अन्न का सेवन कराया जा सकता है ताकि माता का दुग्ध-पान क्रमश: कम हो तथा वह स्वस्थ रहे। वैदिक मान्यतानुसार अन्न भी ब्रम्ह है। अतः आत्मदेव के विकास हेतु अन्नब्रम्ह का सहयोग लेना ही अन्नप्राशन संस्कार है। प्रायः जातक के नाना या मामा पक्ष द्वारा यह संस्कार कराया जाता है जिसका आशय ननसाल से स्नेह सम्बन्ध को सुदृढ़ करना है।
8. कर्णछेदन संस्कार:
जन्म के 6-7 माह पश्चात् किये जानेवाले इस संस्कार में बच्चे के कर्ण (कान), नासिका (नाक) छेदने तथा भुजाओं में गोदना गुदवाने का प्रावधान होता है। एक्युप्रेशर चिकित्सा पद्धति के अनुसार कान-नाक छिदवाने से जातक की क्षमता में वृद्धि होती है। विलम्ब करने से बच्चे की मांस-पेशियाँ मजबूत होने से कष्ट अधिक होता है जबकि समय से पूर्व अत्यंत कोमल मांस-पेशियों के कारण क्षति की सम्भावना अधिक होती है। गुदना बालक के कुल (कबीले) या इष्टदेव का पहचान चिन्ह होता है।
9. चूड़ाकरण (मुंडन) संस्कार:
यह संस्कार जन्म के 6 से 12 माह की समयावधि में किया जाता है। इसमें शिखा (चोटी) को छोड़कर सिर के समस्त बाल काटे जाते हैं। यह मान्यता है की इस संस्कार से पूर्व जन्म के संस्कार समाप्त हो जाते हैं तथा नव जन्म के संस्कारों को जातक ग्रहण करने लगता है।
10. उपनयन (यज्ञोपवीत / व्रतबंध) संस्कार:
इस संस्कार का उद्देश्य बच्चे में ज्ञानप्राप्ति की पात्रता विकसित हो जाना माना गया है। ब्राम्हण (तीव्र मेधावाला, कम बल) हेतु 8 वर्ष, क्षत्रिय (अधिक शक्ति, कम बुद्धि) हेतु 11 वर्ष तथा वैश्य (सामान्य बल-बुद्धि) हेतु 12 वर्ष की आयु में इस संस्कार का प्रावधान किया गया है जबकि शूद्र (बल-बुद्धि से हीन) बच्चे को इससे मुक्त रखा गया है। यह संस्कार विद्यारंभ का सूचक है। इसका उद्देश्य बच्चे की पात्रतानुसार ज्ञान-प्राप्ति का अवसर उपलब्ध करना है। न्यून बल-बुद्धि के बच्चे को किताबी तथा गूढ़ शिक्षा के स्थान पर व्यवहारिक ज्ञान उपलब्ध कराना है।
11. विद्यारम्भ संस्कार:
संसार में जन्म लेने के पश्चात् आत्मा शरीर के बंधन में बँध जाती है। जीवन का अन्तिम लक्ष्य मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होना है। ज्ञान मुक्ति का माध्यम है। 'सा विद्याया विमुक्तये' अर्थात विद्या मुक्ति प्रदान करती है। इस संस्कार का उद्देश्य बच्चे में ज्ञान-प्राप्ति की पात्रता होने की घोषणा है।
12. प्रत्यावर्तन संस्कार:
विद्याध्ययन पूर्ण करने पर (25 वर्ष की आयु में) घर लौटा जातक बड़ों को प्रणाम कर आशीर्वाद लेता है। इस संस्कार द्वारा सूचित किया जाता है कि बालक अब युवा, ज्ञानवान, आजीविका कमाने योग्य तथा गृहस्थाश्रम प्रवेश के योग्य हो गया है।
13 विवाह संस्कार:
भारतीय मान्यतानुसार पितृ ऋण को वंश बेल आगे बढ़ाकर ही चुकाया जा सकता है। वंशज ही तर्पण करता है जिससे दिवंगत पितर तृप्त होते हैं। वंश-वृद्धि हेतु विवाह अपरिहार्य है। पुरुष को परा-पुरुष तथा स्त्री को आदि-शक्ति का प्रतीक मन गया है। दोनों के सम्मिलन से ही सृष्टि का विकास होता है। भारतीय परंपरा में सुदूर विवाह श्रेष्ठ माना गया है। एक कुल, एक गोत्र, एक गुरु के शिष्य, एक स्थान के निवासी का विवाह वर्जित है। जीव विज्ञानं के अनुसार रक्त शुद्धि सिद्धांत के अनुसार किये गए विवाहों में अनुवांशिक रोग सर्वाधिक होते हैं। उक्त वर्जना का कारण यही है। विवाह संस्कार में एक दूसरे के योग्य युवक-युवती सप्तपदी पर सात जन्मों के बंधते हैं। इस्लाम में विवाह एक सौदा तथा ईसाई धर्म में एक समझौता के रूप में मान्य है किन्तु सनातन धर्म में विवाह दो व्यक्तियों ही नहीं, दो परिवारों और दो कुलों में स्थापित अटूट सम्बन्ध है। यह संस्कार जातक के जन्म से 25 वर्ष बाद ही किया जाना चाहिए।
14. वानप्रस्थ संस्कार:
विवाह पश्चात् बच्चों के जन्म, पालन-पोषण, वृद्ध बुजुर्गों की सेवा-सुश्रुसा तथा सामाजिक दायित्वों को पूर्ण कर तथा बच्चों के विवाह पश्चात् जातक जीवन की जिम्मेदारी बच्चों को सौंपकर स्वयं समाज-सेवा करे ताकि देश और समाज के ऋण से मुक्त हो सके। इस हेतु वानप्रस्थ संस्कार का प्रवधान है। इस संस्कार के पश्चात् जातक आत्म चिंतन, आध्यात्मिक गतिविधियों तथा देश व् समाज सेवा की और उन्मुख हो जाता है।
15. सन्यास संस्कार:
वानप्रस्थ में सांसारिक वस्तुओं तथा संबंधों के प्रति क्रमशः निरासक्ति उत्पन्न होने और परमात्मा के प्रति झुकाव होने पर सन्यस्त होने का प्रावधान है। 'सर्वताभावेन न्यासः इति सन्यासः' अर्थात संग्रह से विग्रह की स्थिति में पहुंचना ही संन्यास है। सन्यास काल में एक कौपीन, एक दंड का आशय निर्द्वंद भाव से मोह-मुक्त होकर सत्य की आराधना और ईश्वर प्राप्ति के पथ पर चलना अभीष्ट है।
16. अंत्येष्टि संस्कार:
मृत्यु उपरान्त शव का दाहकर्म, तीसरे दिन अस्थि संचय, 10 वें दिन के पूर्व अस्थि विसर्जन, तेरहवें दिन त्रयोदशी संस्कार (शोक तथा अपवित्रता से मुक्ति ) को अंत्येष्टि संस्कार कहा जाता है। तत्पश्चात जीवात्मा जन्म के बंधन से मुक्त हो पितर्लोक में पहुँच जाती है जहाँ कर्म देवता चित्रगुप्त द्वारा कर्मानुसार फल प्रदान किय जाने की मान्यता है। तत्पश्चात प्रति वर्ष पितर पक्ष में तर्पण किये जाने का प्रावधान है।
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आदरणीय संजीव सलिल जी
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