जब तेरी यादों की दरिया में उतर जाता हूँ मैं॥
कागज़ी कश्ती की तरहा फिर बिखर जाता हूँ मैं॥
कैसी वहशत है जुनूँ है और है दीवानपन,
तू ही तू हरसू नज़र आया जिधर जाता हूँ मैं॥
सारे मंज़र, तेरी यादें सब जुदा हो जाएंगी,
सोचकर तनहाई में अक्सर सिहर जाता हूँ मैं॥
किसकी नज़रों ने दुआ दी है, के तेरी बज़्म में,
बेहुनर हूँ जाने कैसे बाहुनर जाता हूँ मैं॥
तेरी यादों का ये जंगल मंज़िले ना रास्ते,
जिस्म अपना छोडकर जाने किधर जाता हूँ मैं॥
दर्द-ओ-ग़म के बोझ से जब टूटते हैं हौसले,
तेरी आँखों के इशारे से संवर जाता हूँ मैं॥
जिस शज़र पे हमने मिलकर नाम लिखा था कभी,
बेख़याली और उदासी में उधर जाता हूँ मैं॥
हमसफ़र “सूरज” के है यादों का तेरी सिलसिला,
मुश्किलों की राह से हँस कर गुजर जाता हूँ मैं॥
Comment
कमाल करते है भाई, जब भी ग़ज़ल कहते हैं कमाल करते हैं, सभी अशआर दिल को छू रहें हैं, बहुत ही प्यारी ग़ज़ल कही हैं , बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर |
जब तेरी यादों की दरिया में उतर जाता हूँ मैं॥
कागज़ी कश्ती की तरहा फिर बिखर जाता हूँ मैं॥
जिस शज़र पे हमने मिलकर नाम लिखा था कभी,
बेख़याली और उदासी में उधर जाता हूँ मैं॥
नमस्कार आदरणीय डॉ साहब ..
बहुत खूब !! दिल को छु लेने वाली प्रस्तुति .. हमेशा की तरह .. बधाई स्वीकार करें
जब तेरी यादों के दरिया में उतर जाता हूँ मैं॥ !!
गहरे भाव और सुघड़ अदायगी के लिए हार्दिक बधाई डॉ बाली साहब !!
सारे मंज़र, तेरी यादें सब जुदा हो जाएंगी,
सोचकर तनहाई में अक्सर सिहर जाता हूँ मैं॥
आदरणीय सूरज जी, सादर
सच
बधाई
// जब तेरी यादों की दरिया में उतर जाता हूँ मैं॥...
कागज़ी कश्ती की तरहा फिर बिखर जाता हूँ मैं॥..... //
शब्द 'दर्या' पुल्लिंग है इसलिए "की दरिया" लिखना गलत है
तरहा २२ वज्न गलत है इसे आप १२ अथवा २१ पर ही बाँध सकते हैं
मैंने कश्ती को डूबते सुना है बिखरते नहीं सुना और टूट कर बिखरने की बात भी है तो कागज़ की कश्ती कैसे टूटेगी ???
// कैसी वहशत है जुनूँ है और है दीवानपन,....
तू ही तू हरसू नज़र आया जिधर जाता हूँ मैं॥..... //
दीवानापन को गिराने पर भी दीवानापन लिखा जायेगा
जाता हूँ मैं से स्पष्ट है कि क्रिया का समाप्त होना स्पष्ट नहीं है,, आया को आए करिये तो शेअर निर्दोष हो जाये,
वैसे अच्छा शेअर है
आगे के अशआर पर कुछ कहने से बेहतर है कि अपने ख्यालात इन शब्दों में स्पष्ट कह दू ...
यह ग़ज़ल एक उम्दा ग़ज़ल का कच्चा माल है,,,,,
जैसे एक हीरा हो
जिसे अभी तराशा जाना बाकी है
किसकी नज़रों ने दुआ दी है, के तेरी बज़्म में,
बेहुनर हूँ जाने कैसे बाहुनर जाता हूँ मैं॥
तेरी यादों का ये जंगल मंज़िले ना रास्ते,
जिस्म अपना छोडकर जाने किधर जाता हूँ मैं॥
बहुत शानदार ग़ज़ल कही है डॉ .सूर्य बाली जी ये शेर बहुत ज्यादा पसंद आये दाद कबूल करें
किसकी नज़रों ने दुआ दी है, के तेरी बज़्म में,
बेहुनर हूँ जाने कैसे बाहुनर जाता हूँ मैं॥
जिस शज़र पे हमने मिलकर नाम लिखा था कभी,
बेख़याली और उदासी में उधर जाता हूँ मैं॥
ग़ज़ल पर हुए प्रयास पर बहुत-बहुत बधाई, डॉक्टर साहब. उपरोक्त शेर विशेष पसंद आये.
शुभेच्छाएँ.
दर्द-ओ-ग़म के बोझ से जब टूटते हैं हौसले,
तेरी आँखों के इशारे से संवर जाता हूँ मैं॥ -- क्या बात है डॉ सूर्या बलि सूरज जी ! उम्दा गजल के लिए बधाई स्वीकारे
जिस शज़र पे हमने मिलकर नाम लिखा था कभी,
बेख़याली और उदासी में उधर जाता हूँ मैं
आदरणीय डॉ. साहब क्या ख़ूबसूरत ग़ज़ल पेश की आपने! उपर्लिखित विशेष रूप से पसंद आया! वाह क्या कहने! सादर,
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