आज नहीं स्पंदन तन में
क्षुधा-उदर भी रीते है
स्निग्ध शुभ्र वह प्रभा विमल
मुझको खूब सुभीते हैं
देह झरी अवसाद झरे
व्यथा-कथा के स्वाद झरे
किरण-किरण से घुली मिली
Comment
कल्पना में इस लोक के उस पार उस लोक को जीकर शब्दबद्ध करना सच में एक अनूठा प्रयोग है बहुत अच्छी प्रवाह मय रचना बन पड़ी है बहुत बहुत बधाई
रचना में है कुछ नया, मन में अच्छा भाव भरे
आ. राजेश कुमार झा जी,
मृत्यु को समझ पाना इतना सहज नहीं, और उसके बाद मनोमाय कोष किन अनुभूतियों को किस तीव्रता से अनुभव करता है, यह जानना भी वस्तुतः सहज नहीं..
फिर भी जिस वैचारिकता को लेकर आपने यह रचना लिखी, उसके लिए आपको हार्दिक बधाई.
नवगीत के शिल्प को समझ कर यदि इस अभिव्यक्ति को नवगीत का रूप दिया तो यह बहुत सुन्दर हो जाएगा. शुभेच्छा.
वाह
अद्भुत रचना है
प्रवाह में बहता चला गया
हार्दिक बधाई स्वीकारें
आज कोई अवरोध नहीं है
नए ओज से जीते हैं
हां अनंत के शुभ्र पंथ
सच ही सहज सुभीते हैं
वाकई में मृत्यु हरेक तरह के सांसारिक ( दैहिक, भौतिक) आचार विचार से मुक्त कर देती है /
बहुत -2 बधाई आपको खुबसूरत अभिवयक्ति के लिए /
गहन वैचारिकता को शब्दबद्ध करने का यह एक बेहतर प्रयास हुआ है.
रचना को पोस्ट करने के पूर्व इसके प्रारूप से संतुष्ट हो लिया करें, राजेशजी.
उम्दा ख्याल गहन अभियक्ति बेहतरीन प्रस्तुति
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