अपनी कल की ग़ज़ल में कुछ सुधार किये हैं ग़ज़ल की तकनीकी गलतियाँ दूर करने की कोशिश की है आशा है आप सभी को प्रयास सुखद लगेगा
हैं हम गैरत के मारे पर ये सौदागर कहाँ समझे
लगाई कीमते गैरत औ गैरत को गुमाँ समझे
छिड़क कर इत्र कमरे में वो मौसम को रवाँ समझे
है बूढा पर छुपाकर झुर्रियां खुद को जवाँ समझे
गुलिस्ताँ से उठा लाया गुलों की चार किस्में जो
सजा गुलदान में उनको खुदी को बागवाँ समझे
बने जाबित जो ऑफिस में खुदी को कैद करता है
घिरा दीवार से हरदम फलक को आसमाँ समझे
जिसे ऐ सी की आदत हो न मौसम की खबर रखता
वो झांके खिडकियों से और कोहरे को धुआँ समझे
किया इंकार चाहत से वो थी मगरूर मासूका
समझने को रखा न कुछ के आशिक खामखाँ समझे
बनाता है जो सबके घर करे दिन रात मजदूरी
उसे हासिल नहीं हो छत वो सड़कों को मकाँ समझे
छुपाने हाले दिल अपना करो तुम लाख कोशिश पर
नहीं छुपता है आशिक से वो आँखों की जुबाँ समझे
बिछड़ कर आप हमसे जी सकेंगे पूछते थे वो
रहे नादाँ के नादाँ हम इशारे वो कहाँ समझे
रही हसरत मगर जो उड़ न पाया आसमाँ छूने
वही दरिया में बहते दीप देखे कहकशाँ समझे
संदीप पटेल "दीप"
Comment
mujhe radif aur kafia ka zyada ilm nahi ,,,,,rachna man me ghar kar gayii ,,,bas ...
rachnakar aur rachna dono ki safalata ka paimana yah bhi to hona chahiye.
किया इंकार चाहत से वो थी मगरूर मासूका ...............agar ...chahat se thi vo magroor mashooka ...ho to achha lage
समझने को रखा न कुछ के आशिक खामखाँ समझे
जिसे ऐ सी की आदत हो न मौसम की खबर रखता
वो झांके खिडकियों से कोहरे को भी धुआँ समझे -------जबरदस्त शेर वाह ग़ज़ल की जान है
रही हसरत मगर जो उड़ न पाया आसमाँ छूने
वही दरिया में बहते दीप देखे कहकशाँ समझे ----जबरदस्त शेर वाह ग़ज़ल की शान है
मतले से मकते तक ग़ज़ल वाह वाही बटोरने लायक है दाद कबूलें और वाह वाही भी
कहन बेजोड़ है संदीप जी , मुझे काफिया की त्रुटी दिख रही है, खुबसूरत भाव हेतु बधाई |
वाह संदीप जी बड़ी खूबसरत लेखनी है आपकी-----' छिड़क कर इत्र कमरे में वो मौसम को रवाँ समझे
है बूढा पर छुपाकर झुर्रियां खुद को जवाँ समझे '
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