मन ही सवालों से उलझता है !
मन ही सवालों से कतराता है !
मन ही दर-बदर भटकता है!
मन ही भूलने की बात करता है !
झगड़ता है, चिल्लाता है , कोसता है!
यह मन ही तो है जो रोता है !
अनुभव है ,सच नहीं है,
जाने भी दो, जिंदगी है ,
समझकर सबकुछ खुद को ,
समझाने की कोशिश करता है !
कुछ पल तो शांत बैठता है
और फिर अचानक -
मन ही मन कह उठता है
आह! खट्टे अंगूर !
अन्वेषा
Comment
Seema ji, Vinus ji, Arun ji, Ajay ji aur Rajesh ji...abhar.....--/\--
हम तो सच में मन के हाथों कठपुतली की तरह हैं जैसे चाहे मन नचाता जो है दिमाग समझाता है पर मन उस पर हावी हो जाता है आपकी रचना यही सब कह रही है बहुत सुन्दर लिखा आपको शायद पहली बार पढ़ रही हूँ बधाई आपको
chanchal man ka chitran badia he badhai
सुख - दुःख,
दोनों पहलूओं पर विचार मंथन करती सुन्दर अभिव्यक्ति
मन की चतुराई को अच्छा समझाया है आपने ........
ऐ मन रुक
थोडा समझ लूं तुझे
ढाल लूं तुझे शब्दों में
गा लूं तेरे सुरों को
उफ़ नहीं
तू जा ,छुप जा
आखिर लोग क्या कहेंगे..... :)
Prachi Singh ji..Saurabh Pandey Ji..aap dono ka bahut bahut SHukriya, mujhe padhne ke liye aur utsahit karne ke liye ...
पा गये तो खूब वर्ना खट्टे अंगूर ! वैचारिकता को शब्द-शब्द उतारते जाना अच्छा लगा. प्रस्तुति हेतु बधाई, अन्वेषाजी.
मन ही मन कह उठता है
आह! खट्टे अंगूर !....................मन के हारे हार है, मन के जीते जीत.
मन का एक्सरे सुन्दर है.बधाई
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