मत्तगयंद सवैया :-
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आदि अनादि अखंड अगॊचर, मॊह न क्षॊभ न काम न माया !!
तॆज त्रि-खंड प्रचंड अलौकिक,ब्याधि अगाधि दुखादि मिटाया !!
संत-अनंत न जानि सकॆ कछु,वारिहि बीच ब्रम्हांण्ड-निकाया !!
भाँषत वॆद पुराण सुधी जनि, पार न काहु रती भर पाया !!
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( मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
राज जी
सुगठित छन्द हेतु बधाई.
बहुत खूब उत्कृष्ट प्रस्तुति हेतु बधाई
बेहतरीन कविराज बेहतरीन, बहुत ही खुबसूरत सवैया रची है, भाव, कथ्य, शिल्प, सम्प्रेषण सभी बढ़िया , बधाई स्वीकार करें ।
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