वो जो कहते थे के चाहत बुरी है
दिवाने हो गए हालत बुरी है
बना अंधा फखत मगरूर कर दे
बढे गर इस कदर ताकत बुरी है
पचा पाए नहीं खैरात की जो
वही कहते हैं के दावत बुरी है
गँवा चैनो सकूँ ईमान अपना
पता पड़ता है के दौलत बुरी है
कहो मत बेबफा हमको हमनवा
क़ज़ा दे दो न ये जिल्लत बुरी है
उसे लगता है दिल्लगी हँसना
मेरे हँसने की यूँ आदत बुरी है
कतारों में खड़े रहना है कठिन
बहुत अच्छी है या रिश्वत बुरी है
बचाने तेल बुझते “दीप” घर के
पडोसी सोचते फुरकत बुरी है
संदीप पटेल “दीप”
Comment
sandeep ji rachna chubhti si lagi badhai
वाह मित्रवर वाह बहुत ही सुन्दरता से लिखी गई इस शानदार रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर
पचा पाए नहीं खैरात की जो
वही कहते हैं के दावत बुरी है............बहुत खूब.
कतारों में खड़े रहना है कठिन
बहुत अच्छी है या रिश्वत बुरी है..........उलझन है,हमारी ही खड़ी की हुई.
भाई संदीप जी सादर, वाह! सभी अशार सुन्दर हैं. बधाई स्वीकारें.
वाह संदीप जी, उत्तम रचना हार्दिक बधाई मित्र !!!!!!!
वाह संदीप जी, आपने तो हिला दिया । मस्त कर दिया आपने तो व्यंग्य, हकीकत, सबकुछ एक साथ, मजा आ गया
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