तुम्हारी झुकी पलकें जो देखी
तो शृंगार रस में डुबोकर तूलिका,
मन में कोई छवि बना ली
कि यकायक तुमने पलकें उठा ली ,
भाव बदला, रस बदला
आंखों में सुर्ख डोरों को देख
तूलिका का रंग बदला
सब समझ गया मैं रुप का पुजारी
जिसके अंग-अंग पर तूलिका चलती थी
तू नहीं रही अब वो नारी
नही बचा तुझमें स्पंदन
हंत ! व्यथित है चित्रकारी
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Comment
आदरणीय लक्ष्मण जी आपने सही कहा एक बात और कहते हैं ना चक्की में गेहूँ के साथ घुन भी पिस्ता है ,आज के दौर में तो विश्वास ही उठ चुका तो एक चित्रकार कि भावना को भी लोग टेढ़ी नजर से ही देखेंगे
एक चित्रकार के मन आत्मा में बसी प्रेरणा के भावों का साक्षात रूप जब भावहीन हो जाए, तो प्रेरणा विहीन हो वह जिस पीड़ा को अनुभव करता है, वह भाव किस चिंतन के गहरे सागर से खोज लायी आप राजेश जी , अद्भुत भाव है, बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
दिल से बहुत बहुत बधाई इस खूबसूरत चिन्तन व कहन के लिए.
सादर.
इस भौतिक वादी रंग बदलती दुनिया अगर व्यथित है तो स्रजनशील कलाकार,और विचारशील/ संवेदनशील लेखक और चिन्तक ।सुंदर अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया राजेश कुमारी जी
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