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आदरणीय अम्बरीश सर के मार्गदर्शन से दोहा गीत को
दोहा-रोला गीत में परिवर्तित कर नए स्वरुप में प्रस्तुत कर रहा हूँ

सब ऋतुओं से है भला, मोहक परम उदंत
"आराधन रस का लिए, ये ऋतुराज बसंत"

अति जाड़े का अंत, माघ शुक्ला जब आये,
नव दुर्गा का ध्यान, करें ऋतुराज सुहाये,
मना रहे सब संत, जन्म उत्सव वागीश्वरि,
पंचम दिवस बसंत, पूजिये मिल सर्वेश्वरि,
छटा निराली सोहती, प्रेम मग्न हर कंत.
आराधन रस का लिए, ये ऋतुराज बसंत.

सब ऋतुओं से है भला……..

चलती शीतल मंद , पवन भी दक्षिण-उत्तर,
प्रखर भये हैं चंद, चले उत्तर में दिनकर,
छोड़ें तीक्ष्ण अनंग , प्रीत शर मनुज ह्रदय में,
सजनी साजन संग , काम रति शोभित उर में,
नवल धरा अरु नव गगन , नव रव रचते छंद.
आराधन रस का लिए, ये ऋतुराज बसंत.

सब ऋतुओं से है भला……

गावें गीत विहंग, हुई हर डाली पुष्पित
रोमांचित हर अंग, हुआ हर मानव विस्मित
सुरमय दिशा दिगंत, डाल पर कोयल कूके
सुने मुग्ध हो कंत, पीर इक पल में फूंके
तरुण धरा हरितावरण, विस्तृत दृश्य अनंत
आराधन रस का लिए, ये ऋतुराज बसंत

सब ऋतुओं से है भला……

मुख मुस्काये मंद, रखे पग वो पंकज में
स्वर लगते मकरंद, धारती वीणा कर में
ध्यावें जिनको संत, शारदे वो कहलाती
है भण्डार अनंत, लुटाती विद्यादाती
कंत निहारें ये छटा , करें साधना संत
आराधन रस का लिए ये ऋतुराज बसंत

सब ऋतुओं से है भला……

मादक उड़ती गंध, खिली उपवन अमराई
पीली चादर अंग, धरे वसुधा तरुणाई
बिखरे नव नव रंग, पुष्प सा लगता जीवन
देव लोक भी दंग, देख धरती का यौवन
सुरभित सुमनावलि सदृश, नूतन किसलय संग
आराधन रस का लिए, ये ऋतुराज बसंत

सब ऋतुओं से है भला……

आया नवल बसंत, हुआ जीवित अब कण कण
उर उर धवल बसंत, प्रेममय हर इक तन मन
शोभित दिशा दिगंत, न दिखती कोई बाधा
धरती गगन अनंत, कृष्णमय होती राधा
अमृत की धारा भरे, आया आज बसंत
आराधन रस का लिए, ये ऋतुराज बसंत

सब ऋतुओं से है भला……

सजी थाल में भंग, ध्यान होवे शंकर का
डमरू ताल मृदंग, नृत्य हो अभ्यंकर का
शुद्ध श्वेत है गंग, हिमालय से है निकली
मनु मन होय मलंग, बने बहुरंगी तितली
गली गली में हो रही, होली की हुडदंग
आराधन रस का लिए, ये ऋतुराज बसंत

सब ऋतुओं से है भला……

संदीप पटेल “दीप”

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 13, 2013 at 7:04pm

दुबारा पढ़ रही हूँ जितनी तारीफ करूँ कम होगी आपकी रचनई चमत्क्रत करती हैं शुभ कामनाये 

Comment by Dr.Ajay Khare on February 13, 2013 at 3:21pm

sandeep ji bada hi sunder riton ka bakhan kiya hai badhai keep it up.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 13, 2013 at 12:26pm
वाह भाई संदीप कुमार पटेल जी, मन मुग्ध हो नृत्य करने लगा, दिल से ढेरों बधाइयां स्वीकारे 
इन पंकियों ने तो मन ही मोह लिया -
नवल धरा अरु नव गगन , नव रव रचते छंद.
आराधन रस का लिए, ये ऋतुराज बसंत.
अमृत की धारा भरे, आया आज बसंत 
आराधन रस का लिए, ये ऋतुराज बसंत

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 13, 2013 at 11:59am

भाई संदीप जी, आपका रचना-कर्म मुग्धकारी है और मैं मुग्ध हूँ. पाठक के भाव-तंतुओं को तरंगित करती पंक्तियाँ सुन्दर और सार्थक शब्दों के संचयन से कालजयी हुई हैं.

दोहा के साथ रोला का संबंध यहाँ कुण्डलिया छंद से इतर प्रस्तुत गीत में इतने मनोहारी और अन्योन्याश्रय ढंग से निभता हुआ है कि आपके रचनाकर्म को ही एक नई ऊँचाई नहीं दे रहा है, बल्कि सनातनी काव्य-विधा को भी गणीतीय गणनाओं के सापेक्ष किंतु उनसे परे झांकने का सुयोग बना रहा है. भाई संदीपजी, जब छंद विधा भाव और लालित्य से सिंचित हो कर प्रस्तुत होती है तो प्रसंग ऐसे ही अद्वितीय हुआ करते हैं.

हृदय से बधाई.. . बार-बार बधाई.. .

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