क्यों मिल गयी संतुष्टि
उन्मुक्त उड़ान भरने की
जो रौंध देते हो पग में
उसे रोते , कराहते
फिर भी मूर्त बन
सहन करना मज़बूरी है
क्या कोई सह पाता है रौंदा जाना ???
वो हवा जो गिरा देती है
टहनियों से उन पत्तियों को
जो बिखर जाती हैं यहाँ वहाँ
और तुम्हारे द्वारा रौंधा जाना
स्वीकार नहीं उन्हें
तकलीफ होती है
क्या खुश होता है कोई
रौंधे जाने से ??
शायद नहीं
बस सहती हैं और
वो तल्लीनता तुम्हारी
ओह याद नहीं अब तुम्हें
भेदती है अब वो छुअन
जो कभी मदमुग्ध करती
तुम्हारी ऊब से खुद को निकालती
अब प्रतीक्षा - रत हैं वो
खुद को पहचाने जाने का
टूटकर भी
खुशहाल जीवन बिताने का
क्या जीने दोगे तुम उन्हें
उस छत के नीचे अधिकार से
उनके स्वाभिमान से
या रौंधते रहोगे हमेशा !!!
अपने अहंकार से
इस पुरुषवादी समाज में
आखिर कब मिल पायेगी
उन्हें उन्मुक्तता ???
- दीप्ति शर्मा
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
क्या..
मिल जायेगी
उन्हें उन्मुक्तता ???
शायद...
यदि हाँ...
तो कब तक
होगी उन्मुक्त
आज की नारी
सादर......
आदरणीय लक्ष्मन जी .....आदरणीय अजय जी ...आदरणीया नीलिमा जी ... बहुत आभार .. यूँ ही मार्गदर्शन करते रहें
आदरणीय दिनेश जी .. आदरणीय राजेंद्र जी .. आदरणीया उपासना जी ... बहुत आभार .. यूँ ही मार्गदर्शन करते रहें
आदरणीया राजेश कुमारी जी ...आदरणीय विजिय निकोर जी ...आदरणीय गणेश बागी जी .. बहुत आभार .. यूँ ही मार्गदर्शन करते रहें
आदरणीय सौरभ जी , मैं इस कविता को और बेहतर लिखने की कोशिश करूँगी आपको आप यूँ ही मार्गदर्शन करते रहें आभार ..
सुन्दर प्रस्तुति
touching having deep feel badhai
रोंदा जाना कतई स्वीकार नहीं हो सकता । भारत की पुरातन वेद पुराण इस प्रकार की इजाजत भी
बेहद संवेदन शील रचना दीप्ति जी ....
दीप्ति जी बहुत ही बहुत बड़ी संवेदना के साथ आपके शव्दों में जो आधुनिक की ये अठखेलियाँ नजर आती है वास्तव में ये सोचनीय विषय बनता जा रहा है बहुत उत्कृष्टता के साथ उकेरा है आप ने इस मन में उठते हुए इन कुंठित होते हुए भावों को
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