जब से मजबूरी मेरी बढ़ने लगी
दोस्तों से दूरी भी बनने लगी
उनकी हाँ में हाँ मिलाया जब नहीं
बस मेरी मौजूदगी डसने लगी
कद मेरा उस वक्त से बढ़ने लगा
आजमाइस दुनिया जब करने लगी
भा गई फिर सब्र की तौफीक भी
ज़ुल्म की शिद्दत भी जब बढ़ने लगी
दूर मुझसे आप जब से हो गए
ज़िंदगी से हर खुशी झड़ने लगी
तेरी हर तकलीफ से वाकिफ़ हूँ मै
बस तेरी चुप्पी मुझे खलने लगी
Comment
khan sahib bahut hi badia khyaal hai badhai
नादिर साहब ! गुमसुम सी चल रही आज के दौर के इंसान की गुमसती हुई जिंदगी को बखूबी उभारा है आपने अपने लफ्जों में . बेहतरीन, शायद आज की ग़ज़ल का मौजूँ ऐसा ही होना चाहिए .
बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है आ. नादिर जी
शुभकामनाएं
बहुत लाजवाब शेर हैं।
बधाई।
विजय निकोर
अदरणीय सौरभ जी, अदरणीय वीनस जी आप दोनों का बहुत आभार हमेशा आप लोगों से सीखने को मिलता है, ये सौभाग्य की बात है। बहुत जल्दी गज़ल में सुधार की कोशिश करेंगे ।मार्गदर्शन के लिए बहुत आभारी हूँ ।
बृजेश जी ,आशीष जी ,वेदिका जी आप लोगों ने रचना को सराहा बहुत-बहुत शुक्रिया,लिखने के लिए फिर हौंसला मिला ।
मतला से आख़िरी शेअर तक बेहतरीन ग़ज़ल हुई है ...
कई शेअर शानदार हैं
तेरी हर तकलीफ से वाकिफ़ हूँ मै
बस तेरी चुप्पी मुझे खलने लगी
आख़िरी शेअर के लिए दिली मुबारकबाद
छोड़ा २२ को छुटा १२ करने का विकल्प मौजूद है बस भाव में हल्की सी तबदीली आयेगी ...
चौथे शेअर में मिसरा उला में भी रदीफ़ निभ गई है उस पर भी नज़ारे सानी फरमाएँ तो ग़ज़ल और निखरेगी ...
शुभकामनाएं
वाह वाह !
वाह वाह !!! यह शेर तो लाजवाब है.......
तेरी हर तकलीफ से वाकिफ़ हूँ मै
बस तेरी चुप्पी मुझे खलने लगी |
नादिर साहिब , आपकी कोशिश अच्छी लगी.
उनकी हाँ में हाँ मिलाना क्या छोड़ा
बस मेरी मौजूदगी डसने लगी
इस शेर के लिए बार-बार बधाई कह रहा हूँ. बहुत सुधरी बात कही है आपने.
वैसे भाई छोड़ा के छो को गिराना उचित नहीं लगा है.
आपके कहे का हमेशा इंतज़ार रहता है.
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