एक मुसलसल जंग सी जारी रहती है --
जाने कैसी मारा मारी रहती है --
एक ही दफ़्तर हैं, दोनों की शिफ्ट अलग
सूरज ढलते चाँद की बारी रहती है --
भाग नहीं सकते हम यूँ आसानी से
घर के बड़ों पर ज़िम्मेदारी रहती है --
इक ख्वाहिश की ख़ातिर ख़ुद को बेचा था
अब भी शर्मिन्दा ख़ुद्दारी रहती है --
साहब जी नारीवादी तो हैं, लेकिन
साहब के घर अबला नारी रहती है --
हम भी गुजरे थे इक दौरे लज़्जत से
'इश्क़' नाम की जब बीमारी रहती है --
उस पगली का तकिया भी भीगा होगा
अपनी तबियत भी कुछ भारी रहती है --
चादर ताने सोती है सारी दुनिया
मालिक ! तेरी पहरेदारी रहती है -- --
साहब जी नारीवादी तो हैं, लेकिन
Comment
@ मोहन बेगोवाल जी - सुन्दरता को परखने के लिए आभार आदरणीय.
@ सौरभ पाण्डेय सर - वस्तुतः मैं स्वयं को विशुद्ध पाठक मानता हूँ. बाकी, ये सब जो थोड़ी बहुत कलम घिसाई है, आप अग्रजों को देखकर सीखने का प्रयास भर है. आप सभी की उम्मीदों का मान रख सकूँ, भविष्य में ऐसा प्रयास करूँगा. अनुज यदि ज़िद कर रहा हो, तो उसे हड़काकर सुधारने का अग्रज को पूरा अधिकार है. आपकी सारगर्भित टिप्पणी ने कम शब्दों में ही बहुत कुछ कह दिया है. हार्दिक आभार.
@ गणेश भाई - हर शे'र पर आपकी विस्तृत टिप्पणी से अभिभूत हूँ और ग़ज़ल आपको पसंद आई, इसके लिए तहे दिल से आपका 'शुक्रवार-गुरूवार' हूँ. :)
@ कुन्ती मुखर्जी जी - 'तस्वीर' के अनुमोदन हेतु आभार आदरणीया.
@ विजय मिश्र जी - ग़ज़ल की संजीदगी आप तक पहुँच सकी, तो लेखन सफल रहा. बधाइयों के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय.
वो सही है.. .बीच का सिर्फ़ ’तो’ छूट गया है .. :-))))
साहब जी नारीवादी हैं, लेकिन
इस मिसरे को दुरुस्त कीजिये ....
" इक ख्वाहिश की ख़ातिर ख़ुद को बेचा था
अब भी शर्मिन्दा ख़ुद्दारी रहती है -- "
" साहब जी नारीवादी हैं, लेकिन
साहब के घर अबला नारी रहती है --" ----- ये लाइनें बहुत संजीदा हैं और पूरी गज़ल का मिजाज़ मिजाज़ तर करने वाला है .विवेकजी , बधाई स्वीकारें .
vivek misra ji, apne kavita ke madiam se apne kia tasveer dikhai hai.bahut khub.
//एक मुसलसल जंग सी जारी रहती है --
जाने कैसी मारा मारी रहती है --// होता है होता है विवेक भाई, खुदी से मुहब्बत ..खुदी से लड़ाई ...अरे मार डाला दुहाई दुहाई .....बढ़िया मतला ।
//एक ही दफ़्तर हैं, दोनों की शिफ्ट अलग
सूरज ढलते चाँद की बारी रहती है --// आय हाय हाय, क्या नब्ज पकड़ा है भाई, दो टकिये की नौकरी .....बहुत ही खुबसूरत शेर ।
//भाग नहीं सकते हम यूँ आसानी से
घर के बड़ों पर ज़िम्मेदारी रहती है --// सही बात, मेरे दिल की कही है ,शाबाश !!
//इक ख्वाहिश की ख़ातिर ख़ुद को बेचा था
अब भी शर्मिन्दा ख़ुद्दारी रहती है --// वाह वाह, क्या कहने भाई वाह , बढ़िया शेर ।
//साहब जी नारीवादी हैं, लेकिन
साहब के घर अबला नारी रहती है --// नारीवादी जो ठहरे !!
//हम भी गुजरे थे इक दौरे लज़्जत से
'इश्क़' नाम की जब बीमारी रहती है --// आय हाय हाय,याद आ गया मुझको गुजरा ज़माना :-)
//उस पगली का तकिया भी भीगा होगा
अपनी तबियत भी कुछ भारी रहती है --// जानलेवा शेर है भाई,क्या कहन है ,बेजोड़ , बहुत बढ़िया ।
//चादर ताने सोती है सारी दुनिया
मालिक ! तेरी पहरेदारी रहती है --// सही सही, अब तो उसी की पहरेदारी पर भरोसा है ।
कुलमिलाकर बहुत ही खुबसूरत ग़ज़ल दी है विवेक भाई , बहुत बहुत बधाई स्वीकार हो ।
इस एक ग़ज़ल ने आपको आपकी लापरवाह ज़िद से मुआफ़ी दिलवा दिया है. अपनी नहीं तो पाठकों की तो सुना करें, विवेकजी. उस रोज़ १२ मार्च को सामने बैठ कर जब हमने इस ग़ज़ल को सुनी थी तो एकदम से हम चकित रह गये थे. आगे कुछ नहीं कहना.
मिश्र जी , आपकी गज़ल बहुत ही सुन्दर है ,इसके लिए धन्यवाद
@ गणेश भाई- धन्यवाद जी धन्यवाद. बाकी, विस्तार के इंतज़ार रही. :-)
@ वीनस भाई- "तेरा तुझको अर्पण.. क्या लागे मेरा.." कोशिश करूँगा कि आपकी उम्मीदों पर कायम रह सकूं.
@सतवीर वर्मा जी- ह्रदय से आभार आदरणीय.
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