मंच के सामने आठ दस लोग कुर्सियों पर बैठे थे। सफेद झक कुर्ता पायजामा पहने छरहरे बदन का एक युवक मंच पर खड़ा भाषण दे रहा था, ‘आज हमारे देश को भगत सिंह के आदर्शों की जरूरत है……..।‘ भाषण खत्म होने पर संचालक ने घोषणा की, ‘थोड़ी ही देर में सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रारम्भ होंगे।‘
कुछ देर बाद एक युवती रंग बिरंगी वेशभूषा में मंच पर आयी और उसने एक गीत पर नृत्य आरंभ कर दिया ‘……चिकनी चमेली……’
भीड़ धीरे धीरे बढ़ने लगी थी।
सीटियां बज रही थीं।
भगत सिंह शहीद हो चुके थे। चमेली महक रही थी।
.
- बृजेश नीरज
Comment
Respected Coontee ji, Thanks for your comments!
brijesh jha ji, chemeli ka bhi koi jawab nahi , apka bhi kia observation hai.bravo !
Neelima ji आपका आभार!
अह!.एक करारा
व्यंग
केवल भाई आपका आभार!
आदरणीय श्री बृजेश कुमार सिंह (बृजेश नीरज) जी, जितनी छोटी उतनी ही प्यारी रचना।
आपको बहुत बहुत बधाई।
आदरणीय राम शिरोमणि जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद!
राजेश जी आपका आभार!
बिल्कुल सटीक व्यंग किया है आपने आदरणीय!
सुन्दर लेखन के लिए बधाई।
सादर
सीटीयां जहां बजनी चाहिए वहीं अच्छी लगती है । ऐसे तमाम विरोधाभास अनेक जगहों पर हैं । हर सरस्वती पूजा में बीड़ी जलइले जरूर बजता है, छुटपन में हम भी तम्मा तम्मा लोगे या एक दो तीन बजाते थे क्योंकि हमारे लिए सरस्वती पूजन पूजनोत्सव ना होकर एक त्यौहार था, अब समझ में आया कि साधना और त्योहार अलग हैं, शायद यह बात हमने अभी भी बच्चों को सिखानी है । आपने सुंदर तरीके से इसे रेखांकित किया है, सादर
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