ढाक अमलतास पे, आ गयी बहार देखो,
सेमर भी कुसुमित, फाग का महीना है |
सारे रंग लाल-लाल, फूलों पर दिखाई दें,
कुहु-कुहू कोयल की, राग का महीना है |
सूरज का ताप तन, बदन झुलसायेगा,
तपन दहन वह्नि, आग का महीना है |
सैर सपाटा सुबह, मन में उल्लास भरे,
नदियाँ तलाव नीर, बाग़ का महीना है ||
मौलिक / अप्रकाशित.
Comment
भाई अरुण जी सादर आभार. सुधार के लिए तो प्रयत्नशील रहना ही होगा.
आदरणीय एस. के. चौधरी साहब सादर, मैं अवश्य ही आगे यह प्रयास रखूंगा की इस तरह की घाल मेल ना हो. सादर आभार.
बहुत सुन्दर मन मोहित करने वाले शब्द और भाव रचे हैं अशोक जी ........बहुत प्यारी घनाक्षरी ...संदीप की बातों से मैं भी सहमत हूँ क्योकि पढ़ते समय मुझे भी बस इन्ही स्थानों पर लय रुकती हुयी सी लगी .......
//ढाक अमलतास पे//, //बदन झुलसायेगा//,और// तपन दहन वह्नि// मे कुछ प्रवाह बाधित सा लग रहा है
आदरणीय अशोक सर बहुत ही सुन्दर घनाक्षरी प्रस्तुत की है आपने, मुझे बहुत पसंद आये हार्दिक बधाई स्वीकारें.
सुन्दर प्रस्तुति, आदरणीय..
सूरज का ताप तन, बदन झुलसायेगा,/ तपन दहन वह्नि,.. इन तीन चरणों में शब्द-संयोजन सधा हुआ नहीं है, आदरणीय.
सम के बाद सम और विषम के बाद विषम शब्द रखने से इसे साधा जा सकता है.
आदरणीय अशोक सर जी बहुत ही सुंदर घनाक्षरी रची है आपने बहुत बहुत बधाई हो
//ढाक अमलतास पे//, //बदन झुलसायेगा//,और// तपन दहन वह्नि// मे कुछ प्रवाह बाधित सा लग रहा है
हो सकता है मैं जिस लय मैं गा रहा हूँ उसकी वजह से हो आप देख लीजिए
एक बार पुनः बधाई आपको
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