ग़ज़ल कहने का प्रयास किया है
तू क्या तेरी हस्ती है क्या ये ध्यान में ला
अब उठ खड़ा हो खुद को फिर मैदान मे ला
मज़हब की बातें औ नहीं ईमान की कर
पहले ज़रा इंसानियत इंसान में ला
जब तक जिया उसको बुरा सबने कहा है
क्यूँ रोते हो अब तुम उसे शमशान में ला
नेता है उसको क्या पता क्या है ग़रीबी
उसको कभी इस कोयले की ख़ान मे ला
क्यूँ दीप जलता खुद पे ही इतरा रहा है
दम आजमा तू खुद को इस तूफान में ला
दीप
मौलिक एक अप्रकाशित
Comment
आदरणीया राजेश कुमारी जी सादर प्रणाम
इस सराहना हेतु सादर आभार आपका
आपकी इस्लाह सर आँखों
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये
सादर
जब तक जिया उसको बुरा सबने कहा है
क्यूँ रोते हो अब तुम उसे शमशान में ला-------ये शेर फिर से देख लें प्रिय संदीप तुम के साथ ला ठीक नहीं लग रहा मेरी इस्स्लाह
जब तक जिया उसको बुरा तूने कहा है
क्यूँ रोता है अब तू उसे शमशान में ला प्रिय संदीप जी मतले से मक्ते तक के शेर वाह वाह कहने को मजबूर करते हैं दिली दाद स्वीकारें
आदरणीय योगी जी सादर
ग़ज़ल को सराहने के लिए आपका आभारी हूँ
स्नेह यूँ ही बनाए रखिए
आदरणीय बृजेश जी सादर प्रणाम
ये सब आपका स्नेह है जो लिखने के लिए प्रेरित करता है
इसे यूँ ही बनाये रखिये
सादर आभार आपका
आदरणीय विजय सर जी सादर प्रणाम
आपकी सराहना पाना मेरे लिए उपहार है
बस ये आप बड़ों का स्नहे है के विचार आते हैं और उन्हें शब्द्बद्ध कर लेता हूँ
सादर आभार आपका
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये
आदरणीया डॉ प्राची जी सादर प्रणाम
ग़ज़ल को पसंद करने हेतु आपका बहुत बहुत आभार
स्नेह यूँ ही बनाए रखिये अनुज पर
आदरणीय बंधुवर अरुण भाई इस सराहना के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आपका
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये सादर आभार आपका
संदीप भाई बहुत खूब! दिल डूब गया आपकी रचना में। सादर बधाई स्वीकारें।
निकोर साहब की बात को दोहरा रहा हूं
//बहुत ताज़गी है आपके ख़यालों में,
इसीलिए तो अच्छे लगते हैं।//
या फिर अच्छे लगते हैं इसीलिए ताजगी भी ला देते हैं।
आदरणीय संदीप जी:
बहुत ताज़गी है आपके ख़यालों में,
इसीलिए तो अच्छे लगते हैं। बधाई।
सादर,
विजय निकोर
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