ना मैं बेटी ना ही मां हूं
केवल रैन गुजारू हूं
रम्य राजपथ, नुक्कड़ गलियां
सबकी थकन उतारू हूं
बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं
अंधेरे का ओढ़ दुशाला
छक पीती हूं तम की हाला
कट-कट करते हैं दिन मेरे
रिस-रिस रात गुजारूं हूं
बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं
जात-पात का भेद ना मानूं
ना अस्ति ना अस्तु जानूं
घुंघरू भर अरमान लिए मैं
सबका पंथ बुहारू हूं
बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं
पता आपको भी तो होगा
या नारों का पहना चोगा ?
कहो तंत्र के वृहत्पाद हे
क्यूं मैं बदन-उघाड़ू हूं ?
बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं
सूत्रधार ओ युग विषाद के
जख्म पूर दो नामुराद के
कहो मौसमी सीरत वाले
क्यूं मैं ढोर-गंवारू हूं ?
बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं
स्वयंदूतिका, अगणवृत्त हूं
इस समाज का भित्तिचित्र हूं
स्याह कलम वाले ही बोलो
क्यूं मैं लाज बिसारूं हूं ?
बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं
(पूर्णत: मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय राजेश जी, " बाबू मैं बाज़ारू हूँ...." पढ़कर आँसू आ गये. ज़िंदगी के क़तरे क़तरे से उठती गूंगी आवाज़ का जो नकाड़ा आपने बजाया है उससे बहरा समाज भी चौंकने पर मजबूर हो जाये तो आपकी रचना को सच्चे अर्थों में अभिव्यक्ति मिलेगी. असाधारण प्रयास...
आदरणीय राजेश सर जी सादर प्रणाम
आपकी यह रचना निःशब्द कर देती है
मैं भी एक नारी हूँ
का जो स्वर आपने दिया है इस रचना के माध्यम से वो रोंगटे खड़े करने वाला है
हर एक पीर पिरो दी आपने शब्दों के माध्यम से
बहुत ही गहन सोच गाम्भीर्य और गहराई के साथ जो इस रचना की माँग है
उसको कायम रखा अंत तक
बहुत बहुत बधाई हो आपको आदरणीय
आदरणीय केवल प्रसाद जी, आपकी उपस्थिति से प्रसन्नता हुई, प्रश्न ज्वलंत है एवं समाधान अबूझ पर मेरा मन कहता है यह तबका मुख्यधारा में जरूर शामिल होगा, सादर
आदरणीय लड़ीवाला जी, यहां स्याह कलम वाले को मैंनें दबे-कुचले एवं उपेक्षित वर्ग की पीड़ा को सामने रखने वाले लेखकों के रूप में लिया है अत: 'स्याह कलम वाले ही देखो/काला चेहरा करने आये ' ऐसा करने से अशोभनीय टिप्पणी हो जाएगी और कम ही सही पर मैं भी इस विषय पर लिखता रहता हूं । रचना का उद्देश्य इस दबे-कुचल वर्ग की ओर ध्यान आकृष्ट करना है जिसकी ओर सबको ध्यान देना चाहिए । सादर
आ0 मित्र राजेश कुमार झा जी, गहन अंतर्मन की वेदना, समाज और सरकार के उदासीन रवैया को उजागर करती रचना अपने स्वाभिमान का हक चाहती है। कौन दिलायेगा उसका स्वाभिमान? अबूझ ज्वलंत प्रश्न!!! लाजवाब। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
आप सभी सुधी जनों का हार्दिक आभार
वाह ! शानदार रचना भाई श्री राजेश कुमार झा साहब, हार्दिक बधाई स्वीकारे -
स्याह कलम वाले ही बोलो
क्यूं मैं लाज बिसारूं हूं ?
बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं | पर सच तो यह है (मेरा मानाहाई)कि -
स्याह कलम वाले ही देखो
काला चेहरा करने आये,
मुहं ये देते फिरते गली गली
तुम कहते मै बजारु हूँ ---हाँ मे बाजारू हूँ
बाबू मैं बाजारू हूं ........बाबू मैं बाजारू हूं
मार्मिक अभिव्यक्ति , दुष्कर कार्य ,
आपको बहुत बधाई
पीड़ा को समझना और फिर उसे उकेरना बहुत दुष्कर होता है लेकिन आपने यह कार्य बहुत सरलता से किया है। आपको ढेरों बधाईयां।
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