आज ज़रूरत है
अपने अंदर झाँकने की
आपसी द्वेष और क्लेश से
ऊपर उठने की
सामने पड़ी वस्तु पर तो
शायद हम पैर न रखतें हैं
पर दूसरों की भावनाओं को
पैरों तले कुचलने में न झिझकते हैं
जात -पात वर्ण भेद के मानकों पर
इंसानों को बाँटने में लग गए हैं
एक दूसरे को नीचा दिखाने की हर
प्रतिस्पर्धा में बुरी तरह जुट गए हैं
पेड पत्थर कागज़ में तो
भगवान् का प्रतिरूप देख रहे हैं
भगवान् द्वारा बनाए इंसान में
भगवान् नहीं देख पा रहे हैं
जिस भगवान् को भटक भटक कर
हम चारों दिशाओं में खोजते हैं
अपने दिलों में झांककर
उनके वास को ,क्यूँ न तलाशते हैं
शायद हमारी मनःस्थिति
उस हिरन की सी हो रही है
जो अपनी नाभि छोड़कर
हर जगह कस्तूरी तलाश रही है
विजयाश्री
१९.१२.२०१२
(मौलिक और अप्रकाशित )
Comment
विन्ध्येश्वरी त्रिपाठी विनय जी
सादर
//सामने पड़ी वस्तु पर तो
शायद हम पैर न रखतें हैं//.............मेरा तात्पर्य सांसारिक वस्तुओं से था
".....नहीं झिझकते हैं।"
".......और जुटे हैं " बेहतर प्रतीत हो रहें हैं
आभार
संदीप कुमार जी पटेल
" कथ्य बिलकुल स्पष्ट "
.....कुछ तो समझ आया
आपका आभार
डॉ प्राची
कुछ विस्तार से समझाइये ...तो शायद अभिव्यक्ति बेहतर हो पाए .....
आभार
अशोक कुमार जी रकताले , अरुण कुमारजी निगम , शालिनीजी कौशिक , प्रदीप कुमार सिंह जी कुशवाहा , केवल प्रसादजी , रस शिरोमणि पाठकजी
आदरणीया विजयाश्री जी
सामाजिक मानसिकता और आपसी व्यवहार को लेकर अतुकांत शैली में भाव सम्प्रेषण....
कई बार अतुकांत रचनाएँ सिर्फ कथानक सी प्रतीत होने लगती हैं...जैसे कोई गद्यांश मात्र हों ..सम्प्रेषण में बाक्यांशों को बहुत छोटा करके साथ ही तुकांतता व प्रवाह को ध्यान में रख कर इससे बचने का प्रयत्न होना चाहिए..
ये सभी अवयव लेखनी में सतत प्रयास के साथ साथ ही पाठन भी करते चलने पर स्वतः ही आने लगते हैं.
अभिव्यक्ति के सद्प्रयास के लिए बधाई
यह संसार है ही मायाजाल.फिर कुछ इंसानी फितरत भी तो है.सुन्दर रचना बधाई स्वीकारें आदरणीया.
सटीक विषय पर सारगर्भित रचना के लिए बधाई.......
बहुत सही कहा है आपने ..भावात्मक अभिव्यक्ति ह्रदय को छू गयी
आदरणीया विजया श्री जी सादर प्रणाम
बहुत ही सुन्दर और सारगर्वित विषय चयन किया है उसके लिए आपको बधाई
आपने कविता में प्रथम चार पंक्तियों को छोड़
सभी में द्विपदियों की तरह तुक मिलाने का प्रयास किया है ऐसा गोचर हो रहा है
किन्तु उसके चक्कर कविता का प्रवाह कथ्य के मामले में कुछ कम हो गया है
इस प्रकार की रचना में अक्सर
कलम चलती नहीं बहती सी है
तुकांत से इसे सजाया जा सकता है लेकिन फिर वो स्पष्ट होने चाहिए
लगभग मेल खाते हुए से काम नहीं चलेगा
जैसे
सामने पड़ी वस्तु पर तो
शायद हम पैर न रखते हैं
पर क्या दूसरों की
भावानाओं को
कुचलने में
हम झिझकते हैं
कुछ इस तरह
कथ्य बिलकुल स्पष्ट होना चाहिए
ताकि पढ़ते हुए पाठक डूब जाए
बंधा रहे अंत तक
सादर
शायद हमारी मनःस्थिति
उस हिरन की सी हो रही है
जो अपनी नाभि छोड़कर
हर जगह कस्तूरी तलाश रही है
आदरणीया विजय श्री जी
सादर अभिवादन
मूल करण यही है..
बधाई
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