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छांव निगलकर हँसता सूरज

नवगीत

 

छाँव निगलकर हँसता सूरज,

उगल रहा है धूप।

 

शीतलता को रखा कैद में,

गर्मी लाया साथ।

तप्त दुपहरी रानी बनकर,

बाँट रही सौगात।

फ्रूट-चाट, कुल्फी, ठंडाई,

सभी सुहाने रूप।

 

रातें छोटी दिन हैं लंबे,

लू का बढ़ा प्रकोप।

घने पेड़ भी तपे आग से,

शीत हवा का लोप।

चीं चीं, चूँ चूँ, कांव कांव सब,

ढूंढ रहे नल कूप।

 

सड़क किनारे ठेले वाले,

राहत लिए खड़े।

जन-जन के तर कंठ कर रहे,

जल से भरे घड़े।

दही,शिकंजी,जूस देखकर,

भाग छिपा है सूप।

 

तपी हुई राहें पथिकों के,

झुलसाती जब पाँव।

सुख-पड़ाव बन जाती है तब,

गुलमोहर की छाँव।

गुल-गुच्छों के छत्र तले सब।

बने हुए हैं भूप।

 

मौलिक एवं अप्रकाशित

 

----कल्पना रामानी

Views: 566

Comment

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Comment by कल्पना रामानी on April 16, 2013 at 6:01pm

राजेश जी, जवाहर लाल जी, अशोक कुमार जी, आप सबका प्रोत्साहित करने के लिए हृदय से आभार...

Comment by राजेश 'मृदु' on April 16, 2013 at 5:45pm

आदरणीय कल्‍पना दी, बड़े दिनों के बाद आपका नवगीत पढ़ने को मिला । बहुत ही सुंदर लेखन हमेशा की तरह, सादर

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on April 16, 2013 at 5:45am

सड़क किनारे ठेले वाले,

राहत लिए खड़े।

जन-जन के तर कंठ कर रहे,

जल से भरे घड़े।

दही,शिकंजी,जूस देखकर,

भाग छिपा है सूप।

इनके अलावा भी अन्य पंक्तियां भी ख़ूबसूरत है! बधाई! 

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 15, 2013 at 10:22pm

आदरणीया कल्पना रामानी जी सादर, बहुत सुन्दर समयानुकूल नवगीत. बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.

Comment by कल्पना रामानी on April 15, 2013 at 10:08pm

प्राची जी, विन्ध्येश्वरी जी,आ॰ विनय जी, केवल प्रसाद जी, आप उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार। अपना स्नेह बनाए रखिए...


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 15, 2013 at 8:27pm

ग्रीष्म ऋतु के आगमन की दस्तक पर बहुत सुन्दर नवगीत लिखा है आदरणीय कल्पना जी.. बहुत सुन्दर, वाह 

चीं चीं, चूँ चूँ, कांव कांव सब,

ढूंढ रहे नल कूप।......................बिल्कुल जीवंत शब्द चित्र 

हार्दिक बधाई स्वीकार करें 

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 15, 2013 at 7:30am
आदरणीया कल्पना रमानी जी! सुन्दर अभिव्यक्ति।आपने जिस खूबसूरती के साथ नवीन बिम्बों को पिरोया है, उसके लिये भूरिश: बधाई!
Comment by vijay nikore on April 15, 2013 at 2:50am

कल्पना जी:

//छाँव निगलकर हँसता सूरज,

उगल रहा है धूप।//

सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई।

सादर,

विजय निकोर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 14, 2013 at 9:35pm

आ0 कल्पना रामानी जी,
’गुलमोहर की छाँव।
गुल.गुच्छों के छत्र तले सब।
बने हुए हैं भूप।’ अतिसुन्दर, हार्दिक बधाई स्वीकार करें। सादर,

Comment by shalini kaushik on April 14, 2013 at 8:42pm
भावात्मक अभिव्यक्ति ह्रदय को छू गयी

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