कहने से डरते हैं आशिक चाह छुपाए होते हैं
दिल के इक कोने मे अक्सर आह छुपाए होते हैं
दिखते हैं आज़ाद परिंदे पर लौटें दिन ढलते ही
घर औ बच्चों की वो भी परवाह छुपाए होते हैं
हमको है मालूम जमाना छेड़ेगा इन ज़ख़्मों को
प्यारी सी मुस्कान में उनकी थाह छुपाए होते हैं
मजबूरी में जो तुमसे डंडे खाते हैं मूक बने
भूल नहीं वो तूफ़ानी उत्साह छुपाए होते हैं
दर दर भटके खूब युवा थक हार गये चलते चलते
भ्रष्टाचारी मंज़िल की हर राह छुपाए होते हैं
उस्तादी की ओढ़े चादर केवल एब निहारें वो
मेरे इन अश्आरो को पढ़ वाह छुपाए होते हैं
संदीप पटेल "दीप"
Comment
बहुत बढ़िया गजल आदरणीय संदीप जी.
बहुत बहुत शानदार गज़ल आदरणीय संदीप जी! बधाई
आदरणीया डॉ प्राची जी सादर प्रणाम
आपकी सराहना पाकर मन प्रसन्न हो गया
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये
सादर आभार आपका
आदरणीया कुंती जी सादर
उत्साहवर्धन हेतु बहुत बहुत आभार
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये
आदरणीय केवल जी सादर
आपकी सराहना के लिए ह्रदय से धन्यवाद
स्नेह यूँ ही बनाये रखिये
उस्तादी की ओढ़े चादर केवल एब निहारें वो
मेरे इन अश्आरो को पढ़ वाह छुपाए होते हैं.....हाहाहा
बहुत खूब गज़ल
प्रिय संदीप जी पाठकों की छिपी हुई नहीं... मुखर वाह कुबूलिये इस शानदार गज़ल पर
संदीप जी ,एक एक शेर काबीले तारीफ है . हर लाइन एक दूसरे के पूरक है . मगर आशिक घायल भी होता है और घायल भी करता है..
बहुत खूब . सादर ,
कुंती
आ0 संदीप कुमार पटेल जी, बहुत सुन्दर अश‘आर ’हमको है मालूम जमाना छेड़ेगा इन ज़ख़्मों को
प्यारी सी मुस्कान में उनकी थाह छुपाए होते हैं’एक नही सारे शेर...। बधाई स्वीकारें। सादर,
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