सफ़र में आँधियाँ तूफ़ान ज़लज़ले हैं बहुत॥
मुसाफ़िरों के भी पावों में आबले हैं बहुत॥
ख़ुदा ही जाने मिलेगी किसे किसे मंज़िल,
सफ़र में साथ मेरे लोग तो चले हैं बहुत॥
सियासतों में न उलझाओ क्यूंकि दुनिया में,
ग़रीब आदमी के अपने मस’अले हैं बहुत॥
अजीब बात है रहते हैं एक ही घर में,
दिलों के बीच मगर उनके फासले हैं बहुत॥
ज़रा संभल के झुकें कह दो शोख़ कलियों से,
ये बाग़बान गुलिस्ताँ के मनचले हैं बहुत॥
समय का रेत जो मुट्ठी से आज फिसला तो,
अकेले बैठ के फिर हाथ हम मले हैं बहुत॥
बस एक जीत से अपने को बादशा न समझ,
अभी तो सामने मुश्किल मुक़ाबले हैं बहुत॥
मिलेंगीं रोटियाँ कपड़े मकां सभी को यहाँ,
चुनावी दावे हैं, दावे ये खोखले हैं बहुत॥
अगर कटेगा तो उजड़ेंगे आशियाने कई,
दरख़्त बूढ़ा है पर उसपे घोंसले हैं बहुत॥
सियाह रात ये नफ़रत की क्या करेगी मेरा,
चराग दिल में मुहब्बत के जब जले हैं बहुत॥
फ़रेब- झूठ का “सूरज” तुम्हें मुबारक हो,
मुझे तो जुगनु सदाक़त के ही भले हैं बहुत॥
डॉ॰ सूर्या बाली “सूरज”
* ज़लज़ला =भूकंप, आबले=छाले ,दरख़्त =पेड़
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
अशोक भाई , प्राची जी और विजय साहिब आप सभी ने ग़ज़ल को सराहा और उत्साह वर्धक प्रतिकृया दी इसके लिए आप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद
//
अजीब बात है रहते हैं एक ही घर में,
दिलों के बीच मगर उनके फासले हैं बहुत॥//
सारे ही शेर अच्छे हैं।
बधाई।
सादर,
विजय निकोर
बहुत खूबसूरत गज़ल कही है आदरणीय डॉ० सूर्या बाली जी
यह शेर बहुत पसंद आया
अगर कटेगा तो उजड़ेंगे आशियाने कई,
दरख़्त बूढ़ा है पर उसपे घोंसले हैं बहुत॥
हार्दिक दाद पेश है
अगर कटेगा तो उजड़ेंगे आशियाने कई,
दरख़्त बूढ़ा है पर उसपे घोंसले हैं बहुत॥........वाह!
डाक्टर साहब क्या खूब गजल कही है सभी अशआर दिल को छू रहे हैं. बहुत गजब. बहुत बहुत दाद कुबूल फरमाएं साहब.
सौरभ जी, मनोज जी, केवल जी, श्याम नारायण जी अभिनव अरुण जी और कुंती जी आप सभी का टहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। हौसला आफजाई के लिए आपका बहुत बहुत आभार!
ज्यादा ज़द्दोज़हद नहीं, सीधी बात कहना डॉ, सूरज साहब की विशेषता है. इस बार की ग़ज़ल में यही बात एक बार फिर से अण्डरस्कोर हुई है. आपके कई शेर ज़िन्दग़ी की पटरी से उठाये गये हैं, सो उनमें मिट्टी की खुश्बू है जिसकी गंध आज का दौर या तो भूल रहा है या उससे अपनी नज़रें-नाक सब फेर रहा है.
इन अश’आर की तासीर पूरी गज़ल में अलग सी लगी. ढेर सारी दाद कुबूल फ़रमाइये -
बस एक जीत से अपने को बादशा न समझ,
अभी तो सामने मुश्किल मुक़ाबले हैं बहुत॥
अगर कटेगा तो उजड़ेंगे आशियाने कई,
दरख़्त बूढ़ा है पर उसपे घोंसले हैं बहुत॥
आ0 डॉ॰ सूर्या बाली जी, दिल को छूती खूबसूरत गजल। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए ....................... |
ज़रा संभल के झुकें कह दो शोख़ कलियों से,
ये बाग़बान गुलिस्ताँ के मनचले हैं बहुत॥
मिलेंगीं रोटियाँ कपड़े मकां सभी को यहाँ,
चुनावी दावे हैं, दावे ये खोखले हैं बहुत॥
इस दौर के जिंदाबाद शायर डॉ बाली के इस सशक्त कलाम का हर शेर हर मिसरा एक स्लोगन सा सशक्त है क्या कहने बार बार पढ़ा और मन मजबूत होता गया !! क्या कहने इस तेवर के यही वक्त की दरकार है और कलम यहीं तलवार से ताकतवर सिद्ध होती है बार बार नमन है डॉ बाली जी , आपको हार्दिक साधुवाद ।
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