शक करने का काम
वो शक करता है
हर मिलने-जुलने वालों पर
और अपने गुर्गों द्वारा
करता रहता पड़ताल
कहीं कोई भेदिया तो
बदल कर भेस
घुस आया हो
उसके आभा-मंडल में....
वो शक करता है
अपने दरबारी, सिपहसालारों पर
चमचों-चाटुकारों पर
इसीलिये कुछ को देता रहता है सज़ाएँ
कुछ को पुरस्कार
कुछ का तिरस्कार....
वो शक करता है
खास अपनों पर भी
कहीं बन तो नही रही
कोई गुप-चुप योजना
उसके निजाम के खिलाफ
उसके ऐशो-आराम के खिलाफ...
उसे पिलाई गई है घुट्टी ऐसी
कुल मुलाकार देखा जाए
तो खाने, अघाने, गुर्राने, चिल्लाने
डकारने, पादने,
खुश होने जैसे महत्वपूर्ण काम
निपटाने के लिए ही तो
लिया है उसने जन्म
इस धरा पर....
और हाँ,
शक करने वाला काम तो
सबसे महत्वपूर्ण है
वरना डोल जाएगा
उसका सिंहासन.....
Comment
शक बेशक बड़े काम की चीज है
घुटते रहो खुद भी घुटाते रहो सभी को
ये नींद हराम करने की चीज है
सादर बधाई
भाई श्री अनवर सुहैल जी, आपका यह शाकी इंसान हर किसी पर ही नहीं, बल्कि अपने आप पर भी शक करता होगा
शाकी दिमाग का व्यक्ति घर को ही ताला लगा कर नही, बल्कि अपने दिमाग पर भी ताला लगाए रखता होगा |
शक करने वाले पर लिखी गयी नितांत यथार्थ बयान करती रचना के लिए हार्दिक बधाई
आदरणीय अनवर जी
यदि व्यक्ति विशवास करना नहीं सीखता....तो वो कभी जिन्द्दगी जी ही नहीं सकता और न ही दूसरों को जीने देता है...
खुद भी अनजाना बोझ ढोता है और दूसरों को भी बोझ तले ही दबाये रखता है..... ऐसी वैचारिकता एक अभिशाप ही है, जो इंसान को इंसान से बेबात विलग कर दे, इंसानियत पर ही प्रश्नचिन्ह लगाए ऐसे निराधार शक पर लिखी गयी इस सार्थक अभिव्यक्ति पर हार्दिक बधाई
सादर.
आदरणीय अनवर सुहैल साहब सादर, सच है जब अयोग्य व्यक्ति के हाथ राजपाट आ जाए तो उसे सर्वाधिक चिंता उस सिंहासन की ही रहती है. सुन्दर रचना कर्म पर कोटिशः बधाई स्वीकारें.
कमजोर नीव पर मकान बनाने वाले हमेशा डरते रहते है की कब आंधी तूफ़ान आ जाये और उनका कमजोर मकान गिर जाए, इसीलिए वो हर पल शक के घेरे में रहते हैं , बढ़िया रचना, आदरणीय अनवर सुहैल साहब ।
आदरणीय उच्च कोटि का कथ्य और सटीक व्यंग ///// हार्दिक बधाई आपको
आ0 अनवर सुहैल जी, सर जी, ऐसे लोग ही अतिडरपोक होते हैं। तभी तो वे दूसरों पर गुर्राते रहते हैं। अतितीक्ष्ण कटाक्ष। बहुत बहुत बधाई स्वीकारें। सादर,
जिन इकाइयों को इंगित कर रचना अपनी बात करती गयी है वो इकाइयाँ पिछले दरवाजे से या फिर बलात् ही समाज के सिर-कान्धों पर लद जाती रही हैं. सदा-सदा से ! कभी धार्मिक ठेकेदारों के नाम पर, कभी शासक के नाम पर, कभी नीतिज्ञ के नाम पर ! ये इकाइयाँ अकर्मण्य़ जीवन का संपोषक हुआ करती हैं. यह भावना परिवार के सदस्य जैसी इकाई में है तो किसी समुदाय विशेष पर भी हावी है जिससे वह स्वयं को अन्य समुदायों के सापेक्ष सबसे श्रेष्ठ समझने लगता है.
आपकी रचनाधर्मिता बहुत ऊँची है आदरणीय अनवर भाईजी. बहुत-बहुत बधाई स्वीकार करें. यह अवश्य है कि बेलाग होने के बावज़ूद कविता की अपनी सीमा होती है. यों, आपने कविता की सीमा को बेहतर निभाया है.
सादर
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