सरकारी नौकरी
काश दो दिन दफ़्तर लगता ,
होती छुट्टी पाँच दिन,
खाते खेलते,सोते घर में
मौज मनाते पाँच दिन ।
बच्चे रोते भाग्य पर,
पर पत्नी खुश हो जाती,
हाथ बटाएगा काम में,
यह सोच मंद मुस्कुराती।
आ जाती तनख्वाह एक को,
बन जाता काम महीने का,
तान रज़ाई ,लेता खर्राटा,
जय बोलता सरकार की ।
जाता दफ़्तर सोम- मंगल,
बाँकी दिन अपने हो जाते,
तेल मालिश करता घर पर,
वोट देता सरकार को ।
समय काटता दिन भर घर पर,
ऑफिस का काम भी कर देता ,
त्याग दिखाता जीवन में मैं,
मुफ्त की तनख्वाह न खाता ।
कब आएगा समय ऐसा,
इसी का इंतजार है,
आ जाए अगर मुद्दा चुनाव में,
2014 अमर हो जाता ।
स्वस्थ होगा मानव तभी,
भरपूर नीद जब सोयेगा,
काम के बोझ से मुक्त होकर,
खुशहाल जीवन, जब जिएगा ।
बाबा ऐसे ही करते थे,
दो महीने में दफ़्तर जाते थे,
लेकर आते जब मोटी तनख्वाह,
नौकरी की बात तब हम जाने थे ।
आजादी बाद हुआ था ऐसा,
मजा किए थे लोग सब,
हुई कड़ाई नब्बे के बाद ,
मस्ती में पड़ी खड़ास रे ।
प्रतिभाशाली लोग आ गए,
मेहनत ये करते बहुत,
विध्न बने है,हमारे सुख के,
भाग्य हुआ विपरीत रे ।
राज्यों में होता है ऐसे,
जाते दफ़्तर एक दिन,
टूर बनाकर घूमा करते,
मजा मारते तीस दिन ।
हुई कड़ाई वहाँ भी अब,पर,
जाकर दफ़्तर में सोते हैं,
रौब दिखाते पत्नी पर,
कि कर आया मैं काम रे ।
Comment
बिल्कुल सही ,आदरड़िया तनेजा मैडम ।प्रस्तुति पसंद आई ,इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद ।
वाह रे "सरकारी नौकर(ई)"! कितना मज़ा आता था तब!
तभी तो प्राईवेट सेक्टर अधिक तरक्की कर गया है|
क्यों?
बहुत बढ़िया प्रस्तुति!
प्रतिक्रिया के लिए सभी को धन्यवाद ।सरकारी नौकरी में भी बहुत लोग मेहनत करते हैं ।आज के समय में स्थिति बहुत सुधर गई है ।लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि इस देश में कई बढ़िया संसथाएं इसीलिए डूब गई क्योंकि लोग काम नहीं करते थे ।सरकारी नौकरी मिल जाने के बाद बहुत से लोग समझ लेते हैं कि वे अब सरकारी संपत्ति के मालिक हो गए हैं ।ऐसे ही लोगों के लिए यह कविता लिखी गई है ।यह हास्य व्यंग्य है,बहुत गंभीरता से न लें ।साहित्य का मतलब आदमी को हल्का करना भी होता है ।जो सत्य है वह लिखना चाहिए चाहे वह कितना भी कड़वा क्यों न हो और यदि पूर्वजों ने कुछ गलती की है तो उसे भी सामने लाना चाहिए ।
सरकारी नौकरी और लापरवाह सेवको पर लिखी सुन्दर रचना आदरणीय अखिलेश जी बधाई स्वीकारें.
श्री अखिलेश मिश्रा जी, आपकी संभवतः मै यह पहली रचना पढ़ रहा हूँ | प्रस्तुति के लिए बधाई किन्तु मै श्री शरदिंदु मुकर्जी
के विचारो से सहमत हूँ | व्यंग रचना के माध्यम से बुराई पर कटाक्ष हो तो बेहतर है | एक लेखक का प्रथम दायित्व साहित्य
के माध्यम से समाज को धनाम्त्मक विचार देने चाहिए | फिर भी आपके प्रयास और अंतिम पंक्तियों में कुछ सच्चाई बया.
करने के लिए बधाई
भाई अखिलेश जी, शायद आपका उद्देश्य था हास्य-व्यंग्य रचना भेजना. लेकिन .....लेकिन इस प्रक्रिया में आप रचनाकार के मूल दायित्व को ही भूल गये. छोटे-बड़े, प्रतिष्ठित, नये नवेले, असाधारण, साधारण हर तरह के रचनाकार का पहला कर्तव्य है समाज के प्रति अपने कर्तव्य को निभाना....और यह कर्तव्य है अपनी रचना के माध्यम से समाज के मानस में सौंदर्य, ओज, शांति और सुख की प्रतीति भर देना. वर्तमान रचना में आपने केवल ऋणात्मक मनोवृत्ति ही चित्रित किया है.....अपने अति उत्साह (??) में आप अपने पूर्वजों को भी नहीं बख्शते......स्वयम सोचिये क्या यह एक कवि के लिये उचित है? आपके प्रयास के लिये हमेशा मेरी तरफ़ से साधुवाद लेकिन अपने प्रयासों को आशा की किरणों से नहलाएँ तो मज़ा आ जाएगा. सादर.
अगर सरकारी नौक्ररी ऐसी होगी तो देश को रसातल में जाने का क्षणमात्र भी नहीं लगेगा........लेकिन भैया ..ऐसे भी लोग हैं जो बड़ी निष्ठा और इमानदारी से सरकारी नौकरी करते हैं.....उनके पत्नियों का भी योगदान होती हैं.....जो महिनों out door कार्यरत पति की अनुपस्थिति में पूरा परिवार बम्भालती हैं. सादर / कुंती .
कुशवाहा जी धन्यवाद ,प्रतिक्रिया के लिए ।
हाँ बाबू ,
ये सरकारी नौकरी है
मिले तब न
बधाई
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