बह्र : रमल मुसम्मन सालिम
वक्त ने करवट बदल ली जो अँधेरा छा गया,
आसमां की सैर करने चाँद चलकर आ गया,
प्यार के इस खेल में मकसद छुपा कुछ और था,
बोल कर दो बोल मीठे जुल्म दिल पे ढा गया,
बाढ़ यूँ ख्वाबों की आई है जमीं पर नींद की,
चैन तक अपनी निगाहों का जमाना खा गया,
झूठ का बाज़ार है सच बोलना बेकार है,
झूठ की आदत पड़ी है झूठ मन को भा गया,
तालियों की गडगडाहट संग बाजी सीटियाँ,
देश का नेता हमारा यूँ शहद बरसा गया.....
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए …………….. |
भाई सालिम जी बधाई सुंदर प्रस्तुति के लिए ।
अच्छी गजल के लिए हमारी शुभकामनाएं, आपसे और शानदार गजल की अपेक्षा है
झूठ का बाज़ार है सच बोलना बेकार है,
झूठ की आदत पड़ी है झूठ मन को भा गया,...............बस झूठ का ही बोलबाला है.
सुन्दर गजल कही है भाई अरुण जी बहुत बहुत दाद कुबुलें.
आज ग़ज़ल को जिस तेवर के साथ जन-जन की आवाज बनना है और बन भी रही है, उसका शानदार नमूना पेश करती आपकी यह ग़ज़ल काबिले गौर और काबिले तारीफ है
खास कर ये शेर तो सटाक से आ कर सीने पर लगा है
झूठ का बाज़ार है सच बोलना बेकार है,
झूठ की आदत पड़ी है झूठ मन को भा गया,
इस ग़ज़ल के लिए और खास कर इस तेवर के लिए आपको ढेरो दाद पेश करता हूँ
समय की मांग यही है कि इस तेवर की ग़ज़लें कहते रहिये
शुभकामनाएं
wah wah wah
तालियों की गडगडाहट संग बाजी सीटियाँ,
देश का नेता हमारा यूँ शहद बरसा गया.....
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