बह्र : मुतकारिब मुसम्मन सालिम
चोरी घोटाला और काली कमाई,
गुनाहों के दरिया में दुनिया डुबाई,
निगाहों में रखने लगे लोग खंजर,
पिशाचों ने मानव की चमड़ी चढ़ाई,
दिनों रात उसका ही छप्पर चुआ है,
गगनचुम्बी जिसने इमारत बनाई,
कपूतों की संख्या बढ़ेगी जमीं पे,
कि माता कुमाता अगर हो न पाई,
हमेशा से सबको ये कानून देता,
हिरासत-मुकदमा-ब-इज्जत रिहाई,
गली मोड़ नुक्कड़ पे लाखों दरिन्दे,
फ़रिश्ता नहीं इक भी देता दिखाई...
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
अनंत जी,
बहुत खूब
सुन्दर प्रयास है
दो शेर बहर से भटक रहे हैं उनको सही कर लें
हमेशा से सबको ये कानून देता,
हिरासत-मुकदमा-ब-इज्जत रिहाई,
और यही कारण है कि दिन प्रतिदिन अपराध बढते जा रहे हैं!
आखिर हम किसे देगे दुहाई!
बहुत खूब! आपने जो चित्र खींचा है उसका कोई सानी नहीं। बेहतरीन! बधाई आपको!
सुन्दर प्रयास अरुण जी! मतले के उला में प्रवाह कुछ बाधित प्रतीत हो रहा है! नज़रे सानी फ़रमा लें! सादर.
कपूतों की संख्या बढ़ेगी जमीं पे,
कि माता कुमाता अगर हो न पाई,
बिलकुल सही फरमाया
सस्नेह बधाई
आदरणीय अरुन शर्मा 'अनन्त' जी. बहुत बढ़िया विषय व अभिव्यक्ति दी है आपने. बधाई हो!
आदरणीय एडमिन महोदय कृपया पिचासों को पिशाचों कर दें.
भाई अरुण जी सादर सुन्दर गजल रची है सादर बधाई स्वीकारें. "पिचासों" शायद टंकन त्रुटी है.
कपूतों की संख्या बढ़ेगी जमीं पे,
कि माता कुमाता अगर हो न पाई,...........इसका क्या अर्थ समझें?
निगाहों में रखने लगे लोग खंजर,
पिचासों ने मानव की चमड़ी चढ़ाई........बहुत अच्छा पकड़ा है अरून जी .सादर
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