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ये निकृष्ट से प्रतीत होते वहशी लोग हम ही कुलीनों की वैचारिकता के उच्छिष्ट हैं. इन्हें धकिया-गरिया कर नहीं अंग लगा कर समझना होगा कि ये वहशी कैसे हो गये हैं.
बाज़ार किसी बोरिंग की तरह होता है, बलबलाता उगलता बेतहाशा पानी फेंकता हुआ. अब इस प्रचंड प्रवेग से सिर्फ़ स्वीकार्य की चाहना रखना अबोधपन ही होगा. आज जो घिनहे दिखते हैं वे भी इसी एन-केन-प्रकारेण सफल होने की अदबदायी हायतौबा की नाजायज उपज हैं, जो झुंझलाये हुए किसी वहशी पशु की तरह व्यवहार करते हैं..
शुभम्
इसमें कविता किधर है वो ढूंढ रहा हूं
नारी हृदय और उसमें दबे आक्रोश को बड़ी सरलता और स्पष्ट रूप से सामने रखा है। आज के परिदृश्य में इसी की आवश्यकता है। हार्दिक बधाई।
एक एक शब्द बहुत ही दृढता से संप्रेषित किया गया है और .........
निरंतर नारी के वजूद को..........लाजवाब /सादर /कुंती
’आओं रोंद दे इन्हें अभी की अभी
अपनी पांव की इन जूतियों से!....।’ वाह..! बहशियों के प्रति आक्रोश स्वाभाविक ही है। सादर,
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति . .बधाई .
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