(नई कविता) अतुकान्त
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तपतॆ हुयॆ,
रॆत कॆ भूगॊल मॆं,
पढ़ रही हूं
तुम्हारी यादॊं का,
इतिहास,
और,,
गढ़ रही हूँ,
उम्मीदॊं कॆ,
विज्ञान की,
नई प्रयॊगशाला,
समाज-शास्त्र कॆ,
दु:सह नियम,
जकड़ॆ हुयॆ हैं,
मर्यादाऒं की बॆड़ियाँ,
फिर भी,,,,
विश्वास का गणित,
कह रहा है,
एक दिन,
जरूर हल हॊगा,
मॆरी,
बिरह-वॆदनाऒं का,
समीकरण,
मॆरॆ,,,,,
मन की अतृप्त,
तृष्णा का नीति-शास्त्र,
भला कौन,,,,?
समझ सकता है,
इन प्यासॆ चौपायॊं,
सॆ बॆहतर,
हॆ,,,
दिव्य-दिवाकर,
तुम भी तॊ,
नित जी रहॆ हॊ,
बिरह की आग,
का अर्थ-शास्त्र,
समॆटॆ हुयॆ,
अपनॆ अतृप्त हृदय मॆं,
बिल्कुल,,,,
मॆरी तरह,,
मन मॆं,
अभिलाष लियॆ,
किसी कॆ,
मिलन की आस लियॆ,
तलाश मॆं उसकी,
रॊज नापतॆ हॊ,
पूरब सॆ पश्चिम का,
अनंत क्षॆत्रफल,
कल,,आज,,
फिर,,कल,,
बस वही,,
इन्तज़ार कॆ पल,,,!!
कवि-"राज बुन्दॆली"
०३/०६/२०१३
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय कवी जी.. कई बार पढ़ गयी ... बहुत ही सुंदर प्रस्तुति.. .बधाई स्वीकार करें ..
राजभाईजी, आपकी रचना के लिए हृदय से धन्यवाद.
शाब्दिक-किलोल की काव्यशास्त्र में स्थापित मान्यता है. उस आलोक में बहुत ही सुन्दर प्रयास हुआ है. इस अभिजात्य अभिरुचि को बनाये रखियेगा, क्योंकि आपके सामन्य रचनाकर्म का यह अनायास तथा सहज विस्तार प्रतीत हो रहा है.
पुनः बधाई व हार्दिक शुभकामनाएँ
बड़ी सघन अभिव्यक्ति है, सादर
दर्शन शास्त्र के दर्शन-
शुभकामनायें-
Abid ali mansoori जी भाई साहब बहुत बहुत शुक्रिया आपका इस हौसला-आफ़जाई के लिये,,,,,,,,,,
आदरणीय,,,,,Dr Ashutosh Vajpeyee जी भाई साहब आपका यह स्नेह मिला,,,आपको दिल से नमन,,,,,,
बधाई हो बन्धु
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