गड़ गड़ करता बादल गर्जा, कड़की बिजली टूटी गाज
सन सन करती चली हवाएं, कुदरत हो बैठी नाराज
पलक झपकते प्रलय हो गई, उजड़े लाखों घर परिवार
पल में साँसे रुकी हजारों, सह ना पाया कोई वार
डगमग डगमग डोली धरती, अम्बर से आई बरसात
घना अँधेरा छाया क्षण में, दिन आभासित होता रात
आनन फानन में उठ नदियाँ, भरकर दौड़ीं जल भण्डार
इस भारी विपदा के केवल, हम सब मानव जिम्मेदार
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
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आ0 अरून अनन्त भाई जी, ’घना अँधेरा छाया क्षण में, दिन आभाषित होता रात
आनन फानन में उठ नदियाँ, भरकर दौड़ीं जल भण्डार
इस विपदा आफत के केवल, हम सब प्राणी जिम्मेदार
’ सुन्दर प्रयास हुआ है। हार्दिक शुभकामना स्वीकारें। सादर,
बहुत ही करुण रचना, जो हुआ जैसा हुआ उसे बिंदुवार दर्शाती हुयी।
//इस विपदा आफत के केवल // …. दोनों शब्द के एक ही अर्थ निकल रहे है, मालूम नही की उन्हें एक साथ प्रयोग कर सकेंगे या नही ,,,
खैर इस समय रचना धर्मिता पर चर्चा करने से पहले आवश्यक है कुशल क्षेम की प्रार्थना …. !
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