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बारिश की बूंदे

प्यासी धरती पर 

बरसती थी जब 
बारिश की बूंदे 
सोंधी - सोंधी सी खुशबु से 
महक उठता था ......
मेरे घर का आँगन .....
खिल उठते थे बगीचे में 
लगे पेड़ - पोधे .....
और खिल उठता था 
हम सब का मन ......
प्यासी धरती पर 
बरसती थी जब 
बारिश की बूंदे ........
घर के बाहर बहता था वो 
छोटा सा दरिया ......
अक्सर चला करती थी जिसमे 
कागज़ की कश्ती ........
पार होता था कौन पता है ???
चींटी और मकोड़े ..........
प्यासी धरती पर 
बरसती थी जब 
बारिश की बूंदे ........
बरसता तो आज भी है बादल 
उसी सिद्दत से लेकिन .......
मेरे घर में आज वो आँगन नही है 
जो महक उठता था तब 
प्यासी धरती पर 
बरसती थी जब 
बारिश की बूंदे ........
न मेरे घर के बाहर 
बहता है अब वो दरिया 
जिसमे चला करती थी 
हमारी कागज़ की कश्ती 
और पार उतरते थे 
चींटी और मकोड़े .....
प्यासी धरती पर 
बरसती थी जब 
बारिश की बूंदे ........
वक़्त बदला है तो
बदल गये है हम भी
और बदल गया है 
घर का आँगन भी,
घर के बाहर बनी वो 
कच्ची सड़क भी .....
ढक दिया हैं इन्हें आज  
सीमेंट की  चादर ने ...
तभी तो ....
अब नही महकता है
मेरे घर का आँगन 
और न चलती हैं 
हमारी कश्ती ........!!!!!!!!
मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on July 1, 2013 at 7:39am

बहुत सुंदर सोनम!

मेरी भी बचपन की यादें ताजा हो आई!

Comment by ram shiromani pathak on June 30, 2013 at 8:52pm

सुन्दर प्रस्तुति हार्दिक बधाई आपको //आदरणीया कुन्ती दीदी से सहमत हूँ /

Comment by Sonam Saini on June 29, 2013 at 7:00pm

आदरणीय विजय मिश्र जी नमस्कार ......

सहमती व सराहना हेतु आभारी हूँ, बहुत बहुत धन्यवाद सर 
Comment by Sonam Saini on June 29, 2013 at 6:58pm


आदरणीय श्याम नरेन वर्मा जी सादर नमस्कार 

रचना पर सहमती हेतु आभार व धन्यवाद .....
Comment by Sonam Saini on June 29, 2013 at 6:57pm


आदरणीय बब्बन जी सादर नमस्कार 

रचना को सराहने हेतु आभार व धन्यवाद सर 
Comment by Sonam Saini on June 29, 2013 at 6:50pm

आदरणीय कुन्ती जी नमस्कार 

रचना को समय देने के लिए आभार व धन्यवाद .....और साथ ही  के लिए भी बहुत बहुत धन्यवाद मैम, आगे भी राह दिखाती रहें।
Comment by Sonam Saini on June 29, 2013 at 6:45pm

धन्यवाद सुमित जी 

Comment by विजय मिश्र on June 29, 2013 at 5:18pm
विज्ञान के विकास ने जीवन के प्राकृतिक सहजता को सहज ही हमसे दूर कर दिया , हम संधिकाल की पीढ़ी इसकी तुलना कर व्यथित तो होते हैं . उन्हें यह सरसता तो कल्पना में भी सूंघ नहीं पायेगी जो अब अपने घर आ रहे हैं . अतिसुन्दर भाव चित्रण ,साधुवाद सोनमजी .
Comment by Shyam Narain Verma on June 29, 2013 at 4:28pm

बहुत ही सुंदर व मर्मस्पर्शी रचना.....................

Comment by Dr Babban Jee on June 28, 2013 at 6:53pm

A true depiction of irreversible metamorphosis happened in modern life ! Congratulations for your very simplistic creation. Best wishes

 

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