ग़मों में आपका यूँ मुस्कुराना अच्छा है
हंसी लबों पे रक्खे गम छुपाना अच्छा है
कोई कभी जो पूछे है सबब यूँ हंसने का
छुपा के चश्मेतर तो खिलखिलाना अच्छा है
मुझे तो हर घडी ये गलतियाँ बताता रहा
कोई कहे बुरा चाहे ज़माना अच्छा है
ग़ज़ब हैं खेल ये तकदीर के किसे क्या कहें
खुद अपने आप से ही हार जाना अच्छा है
वो जिसकी चोट से दिल जार जार रोया था
उसी की राह से पत्थर उठाना अच्छा है
महल न घर न मुझको आशियाना कोई मिले
मेरे लिए तो तेरा दिल ठिकाना अच्छा है
लिपट के खूब तू रोया था उससे बिछड़ा जब
उसी का हँस के ऐसे दिल जलाना अच्छा है
अगर हो डर के समंदर में डूब जायेंगे
तो बंजरों में ही कश्ती चलाना अच्छा है
किसी को गर्दिशे दिल आपका पता न चले
यूँ “दीप” रात भर घर में जलाना अच्छा है
संदीप पटेल “दीप”
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय वीनस जी, आदरणीय सौरभ सर जी , ग़ज़ल के बह्र को लेकर मेरे दिमाग में तो यही था के
बहरे रजज और हजज के जिहाफ इस्तेमाल करके कुछ लिखूं किन्तु अंतिम जिहाफ २ २ बहरे हजज के हिसाब से नहीं आ पायी फिर भी लिख दिया सोचा की आप बड़ों की राय मिलेगी तो थोडा ज्ञान भी बढेगा के ..............मैंने महजूफ जिहाफ १ २ २ २ - १ २ २ के लिए अस्लम जिहाफ १२२ -२२ का इस्तेमाल किया है ............क्या यह सही है मार्गदर्शन कीजिये
सुंदर प्रस्तुति............
सुन्दर प्रस्तुति ...
बहुत सुन्दर गजल .बधाई
इस ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए शुभकामनाएँ , आदरणीय संदीपजी.
आपकी ग़ज़ल प्रथम दृष्ट्या सद्यः समाप्त तरही मुशायरे के बह्र पर ही दिख रही है जिसके अनुसार मिसरों का वज़्न १२१२ ११२२ १२१२ ११२ या १२१२ ११२२ १२१२ २२ होना था. यदि इसके अलावे हो तो कहियेगा. क्योंकि कई जगह मिसरों में इस वज़्न का निर्वाह नहीं हुआ है.
कई शेर कहन के लिहाज़ से अच्छॆ हुए हैं.
शुभम्
अच्छी कहन के साथ साथ तागज्जुल पर आपकी पकड़ गहरी होती जा रही है
बधाई स्वीकारें
एक बात बताईये भाई,
एक से अधिक बहर में में ग़ज़ल कह दी है क्या ???
ज़रा अरकान बताईये तो मुझे कुछ समझ आये और शिल्प पर कुछ कह सकूं ...
"अगर हो डर के समंदर में डूब जायेंगे
तो बंजरों में ही कश्ती चलाना अच्छा है" बेहतरीन शे'र बेहतरीन ग़ज़ल दीप जी,
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