प्रकृति पुरुष सा सत्य चिरंतन
कर अंतर विस्तृत प्रक्षेपण
अटल काल पर
पदचिन्हों की थाप छोड़ता
बिम्ब युक्ति का स्वप्न सुहाना...
अन्तः की प्राचीरों को खंडित कर
देता दस्तक.... उर-द्वार खड़ा
मृगमारीची सम
अनजाना - जाना पहचाना...
खामोशी से, मन ही मन
अनसुलझे प्रश्नों प्रतिप्रश्नों को
फिर, उत्तर-उत्तर सुलझाता...
वो,
अलमस्त मदन
अस्पृष्ट वदन
गुनगुन गाये ऐसी सरगम
हर सुप्त स्वप्न को दे थिरकन
क्षणभंगुर जग का हर बंधन ,
फिर भी, क्यों ऐसे देवदूत से
बंधन ये अन्अंत पुराना सा लगता है ?
क्यों एक अजनबी जाना पहचाना लगता है?
मौलिक एवं अप्रकाशित
डॉ० प्राची
Comment
प्रिय नीरज मिश्रा जी
//अब इतनी सुन्दर कविता की तारीफ भी कैसे वर्णन हो .....
दीपक से रवि की आभा का कहिये किस भाँति प्रदर्शन हो ....//
रचना को इतनी खूबसूरत काव्य पंक्तियों द्वारा मान देने के लिए बहुत बहुत आभार.
आदरणीय शरदिंदु जी
सादर नमस्कार !
रचना का कथ्य प्रवाह आपके अन्तः पाठक को संतृप्त कर सका , तो रचना लेखन सार्थक ही हुआ समझ रही हूँ .
//इस रचना की गूंज मानस के अंजाने प्रकोष्ठ में भी झंकृत होती रहेगी लम्बे समय तक आदरणीया प्राची जी. आनंद की इस नयी अनुभूति से साक्षात्कार कराने के लिये पाठक आपके ऋणी रहेंगे.//
इन विशेष शब्द भावों के लिए एक रचनाकार भी स्वयं को आप सम पाठकों का ऋणी ही अनुभव करेगा आदरणीय
सादर.
सुन्दर प्रस्तुति -
आभार आदरेया -
आ० शिज्जू जी
रचना पर आपके अनुमोदन के लिए ह्रदय से आभारी हूँ .
आदरणीय प्रयुक्त शब्द थाप ही है क्योंकि यहाँ किसी पटल पर दृश्य छाप की बात नहीं वरन अनंत काल में सदा के लिए गूंजते भाव नाद की बात है. उम्मीद है मैं स्पष्ट कर पायी
सादर.
वो,
अलमस्त मदन
अस्पृष्ट वदन
गुनगुन गाये ऐसी सरगम
हर सुप्त स्वप्न को दे थिरकन///वाह अद्भुत शब्द संयोजन ///
मंत्र मुग्ध हो गया मै///आदरणीया प्राची जी प्रणाम सहित हार्दिक बधाई आपको ///
आदरणीय राजेश झा जी
प्रस्तुत रचना की तथ्यात्मकता की सर्वग्राह्यता पर आपका अनुमोदन रचना के प्रति मुझे भी आश्वस्त कर गया..इस मुखर सराहना कर आश्वस्ति प्रदान करने के लिए मैं आपकी ह्रदय से आभारी हूँ.
सादर.
प्रिय गीतिका जी
आपके पाठक मन को इस अतुकांत रचना का प्रवाह व तथ्य संतुष्ट कर सके ये इस रचना के लिए गौरव की बात है. मैं आपकी ह्रदय से आभारी हूँ.
सस्नेह.
बहुत खूब | अनसुलझे प्रश्न पर अन्तर्द्वन्द को बखूबी उकेरा है आपने |
पदचिन्हों की थाप छोड़ता
बिम्ब युक्ति का स्वप्न सुहाना...
अन्तः की प्राचीरों को खंडित कर
देता दस्तक उर-द्वार खड़ा
मृगमारीची सम
अनजाना - जाना पहचाना... बिलकुल यही होता है | दरअसल जब मन से मन के तार मिले तो, अनजाना भी जाना पह्चाना लगता है |
पदचिन्हों की थाप भी धुन निकाल मद मस्त करदे | ऐसी चिंतन युक्त रचना के लिए हार्दिक बधाई डॉ प्राची सिंह जी | वाह !
बहुत गहरा लिखा है आपने तो ....अभी इतनी तो
हैसियत नही अपनी कि आपकी कविता के बारे में
कुछ कह पाऊं ........
अब इतनी सुन्दर कविता की तारीफ भी कैसे वर्णन हो .....
दीपक से रवि की आभा का कहिये किस भाँति प्रदर्शन हो ....
बहुत बहुत हार्दिक शुभ कामनाये प्राची जी ...........................
//प्रकृति पुरुष सा सत्य चिरंतन
कर अंतर विस्तृत प्रक्षेपण
अटल काल पर
पदचिन्हों की थाप छोड़ता
बिम्ब युक्ति का स्वप्न सुहाना...//....असाधारण अभिव्यक्ति...पदचिन्ह यहाँ मूक इंगित (छाप) नहीं अपितु सस्वर नाद ("थाप") हैं, चेतावनी हैं. इस रचना की गूंज मानस के अंजाने प्रकोष्ठ में भी झंकृत होती रहेगी लम्बे समय तक आदरणीया प्राची जी. आनंद की इस नयी अनुभूति से साक्षात्कार कराने के लिये पाठक आपके ऋणी रहेंगे.
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