चुरा लेता है दिल सबका ,
बड़ा चित चोर है मोहन ।
कि हर जर्रे में बसता है ,
नही किस ओर है मोहन ।
निगाहोँ में भरा हो जब ,
प्रभू के प्रेम का प्याला ।
दिखायी हर जगह देगा ,
तुम्हे वो बांसुरी वाला ।
हर सच्चे दीवाने को
यही महसूस होता है ,
है छाया हर जगह उसकी
बसा हर ठौर है मोहन ।
न दौलत का वो भूखा है ,
न रिश्वत से ही बिकता है ।
हमारी आँख का तारा ,
मोहब्बत से ही बिकता है ।
ज़माना कुछ भी करले पर
झुका सकता नही उसको ,
लेकिन प्रेम के आगे
बड़ा कमज़ोर है मोहन ।
मौलिक व अप्रकाशित
नीरज
Comment
बहुत बहुत अनुग्रह केवल प्रसाद जी
कृष्ण प्रेम पगी बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति...
दो जगह कुछ कहना चाहूँगी:
१.
कि हर जर्रे में बसता है ,
नही किस ओर है मोहन ।...........नहीं किस ओर है मोहन, में कथ्य मुझे कुछ अस्पष्ट लगता है, इसमें 'नहीं किस' के स्थान पर 'बसा हर ओर' सा कुछ किया जाना शायद सही हो.
२.हर सच्चे दीवाने को
यही महसूस होता है ,
है छाया हर जगह उसकी........वाचन करते हुए दो है एक साथ आ रहे हैं तो प्रवाह बाधित हो रहा है...दुसरे वाले हैं को 'कि' किया जा सकता है ...'कि छाया हर जगह उसकी'...इससे मात्रा भी बंद की बाकी पंक्तियों के समान १४ ही हो रही है.
शायद सहमत हों..
शुभेच्छाएँ
sundar va behtrin prastuti
बहुत सुंदर गीत के लिए आपको हार्दिक बधाई, नीरज जी....
सादर
तथ्यात्मक रूप से बहुत ही मनभावन रचना हुई है, नीरज भाई. अपने इस अंदाज़ और अपनी लेखन शैली को बचा कर रखियेगा.
कथ्य पर अभी मशक्कत होती रहे. धीरे-धीरे प्रवाह को आप भी समझते जायेंगे.
शुभेच्छाएँ
अति सुंदर.
आ0 नीरज भाई जी, अतिसुन्दर भाव पूर्ण प्रस्तुति। तहेदिल से हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
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