ये भोर
काली रात के बाद
अब भी सिसकती है
यादों के ताजे निशाँ
सूखे ज़ख़्मों को
एक टक ताकती
उसे नहीं पता
आने वाली शाम और
रात कैसी होगी
पता है तो बस
बीता हुआ कल
वो बीता हुआ कल
जो निकला था
उसकी कसी हुई मुठ्ठी से
रेत की तरह
देखते देखते
रेत की तरह
भरी दोपहर में
तपते रेगिस्तान में
ज्यों छलती है रेत
मृग मारीचिका की तरह
मृग मारीचिका
जिससे भान होता है
पानी का
हाँ नहीं था वहाँ पानी
पानी
न आखों में
न व्यक्तित्व में
आँखों में थी तो बस
हैवानियत
और व्यक्तिव में
आतंकवाद
भोर ने हाथ रचाए हैं
रक्त से
और बैठी है
श्मशान में
अनसन कर रहे
फरियादियों के साथ
कहती है वो कल था
और ये आज है
मुझे तो ये
ताज़ा निशाँ
सुकून देते हैं
और जख्म हर रोज सूखते हैं
हरे हो होकर
दीप
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
रोज रोज की दास्ताँ, हरे-भरे हों घाव |
सूख नहीं पाए कभी, ठांय ठांय हर ठांव ||
सटीक प्रगटीकरण-
शुभकामनाएं आदरणीय संदीप जी-
वाह ! बधाई.. .
एक अलग ही शैली में आपकी रचना , मन मुग्ध हो गया............
//कहती है वो कल था
और ये आज है
मुझे तो ये
ताज़ा निशाँ
सुकून देते हैं
और जख्म हर रोज सूखते हैं
हरे हो होकर //
अति सुन्दर अभिव्यक्ति । बहुत ही मार्मिक भाव हैं, आदरणीय।
विजय निकोर
आ0 संदीप भाई जी,
--मुझे तो ये
ताज़ा निशाँ
सुकून देते हैं
और जख्म हर रोज सूखते हैं
हरे हो होकर ... अतिसुन्दर एवं लाजवाब प्रस्तुति। हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
पता है तो बस
बीता हुआ कल
वो बीता हुआ कल
जो निकला था
उसकी कसी हुई मुठ्ठी से
रेत की तरह
सुन्दर रचना की आपको बधाई !
सुन्दर प्रस्तुति
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