अधिकार भरी मादकता से,दृष्टिपात हुआ होगा;
मन की अविचल जलती लौ पर,मृदु आघात हुआ होगा।
साँसों की समरसता में भी,आह कहीं फूटी होगी;
सूरज के सब संतापों से,चन्द्रकिरण छूटी होगी।
विभावरी ने आते-जाते,कोई बात सुनी होगी;
सपनों ने तंतुवाय हो कर,नूतन सेज बुनी होगी।
कितने पल थम जाते होंगे,बंसीवट की छाँव तले;
मौन महावर पिसता होगा,आकुलता के पाँव तले।
सन्ध्या का दीप कहीं बढ़ कर,भोरों तक आया होगा;
मस्तक का चंदन अनायास,अलकों तक छाया होगा।
पलकों से उर के विप्लव तक,कितने द्वार खुले होंगे;
धड़कन के परिमित घेरे में,हाहाकार घुले होंगे।
कोई चरण झिझकता होगा,पनघट की संकुलता में;
आँचल अस्थिर होता होगा,चलने की व्याकुलता में।
कितनी घड़ियाँ बीती होंगी,संदेहों के भारों में;
आशाओं की दोला पर भी,आशंकित उद्गारों में।
वर्तमान की गतिमयता में,स्नेहिल पाश कहाँ खोया;
सहसा धरती हुई निमज्जित,फिर आकाश कहाँ खोया।
मैंने पल-पल जीवन जी कर,उसमें प्यार बसाना चाहा;
तुमने साधन बना प्रेम को,जीवन-पर्व मनाना चाहा।
जिसका तुमने मर्दन चाहा,मैंने मन में भर डाला;
पीड़ा को तुमने रुदन किया,मैंने कविता कर डाला।
या तो मेरे शब्द छीन लो,या छन्दों में ढल जाओ;
अंधकार के गर्व-शिखर पर,कंदीलों से जल जाओ।
मानभवन की राहों में नित,आना-जाना क्या होगा;
मनुहारों में अद्भुत जीवन,व्यर्थ गँवाना क्या होगा॥
मौलिक व अप्रकाशित।
Comment
मैंने पल-पल जीवन जी कर,उसमें प्यार बसाना चाहा;
तुमने साधन बना प्रेम को,जीवन-पर्व मनाना चाहा।...बहुत सुन्दर
भाव, शब्द और प्रवाह से यह अभिव्यक्ति बहुत सुन्दर है.. फिर भी इसमें कविता के लिहाज़ से एक सुनियोजित विन्यास नहीं है,जो समय के साथ अभ्यास करते करते व अन्य रचनाकारों की अभिव्यक्तियाँ पढते पढते सतह ही रचनाकर्म में आने लगता है.
इस सुन्दर प्रयास के लिए हार्दिक बधाई
रविप्रकाशजी, आपकी इस रचना से एक बात तो एक्दम से स्पष्ट है कि आपकी रचना प्रक्रिया मात्रिकता का सार्थक निर्वहन कर सकती है. इसके अलावे मात्रिक/ गेय कविताओं का अपना एक विन्यास होता है जिसे रचना का शरीर कह सकते हैं. आप इस ओर भी गंभीरता से सोचे. रचना के लिए शुभकामनाएँ
bahut hi badhiya rachna , shabd shabd bol raha hai . meri badhai swikaren .
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ……………… |
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