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ग़ज़ल : अरुन शर्मा 'अनन्त'

उमर भर साथ तू शामिल रही परछाइयों में,

सहा जाता नहीं है दर्द-ए-दिल तन्हाइयों में,

जरा सी बात पे रिश्ता दिलों का तोड़ते हैं,

उतर पाते नहीं जो प्यार की गहराइयों में,

भला इन्सान कोई दूर तक दिखता नहीं है,

बुराई घुल रही तेजी से है अच्छाइयों में,

जमीं ही रोज जीवनदान देती है सभी को,

जमीं ही रार बोती है सगे दो भाइयों में,

निगाहों को दिखाकर ख्वाब ऊँचें आसमां का,

गिराते लोग हैं धोखे से गहरी खाइयों में....

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by अरुन 'अनन्त' on August 11, 2013 at 1:09pm

आदरणीय सौरभ सर जी हार्दिक आभार आपका भविष्य में ध्यान रखूँगा.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 11, 2013 at 12:54pm

जमीं ही रोज जीवनदान देती है सभी को,

जमीं ही रार बोती है सगे दो भाइयों में,

एक ईमानदार कोशिश हुई है, भाई अरुन अनन्त जी, बहुत बहुत बधाई.

वैसे, आप १२२२ १२२२ १२२२ १२२ को कह देते जिसके लिए अक्सर इस मंच से सभी ग़ज़लकारों से आग्रह किया जाता है तो नये प्रयासकर्ताओं को आपकी ग़ज़ल समझने में आसानी हो जाती.

पुनः बधाई  

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 2, 2013 at 10:32am

सुन्दर भाव समेटे गजल रचना के लिए बधाई श्री अरुण शर्मा "अनंत" जी 

Comment by vandana on August 2, 2013 at 6:10am

जमीं ही रोज जीवनदान देती है सभी को,

जमीं ही रार बोती है सगे दो भाइयों में,

निगाहों को दिखाकर ख्वाब ऊँचें आसमां का,

गिराते लोग हैं धोखे से गहरी खाइयों में....

समसामयिक और बहुत बढ़िया गजल 

Comment by shubhra sharma on August 1, 2013 at 11:47am

भाई अरुण जी , आपकी गजल आज के समाज के व्यबहारिक पहलु को बखूबी दर्शा रही  है , सुन्दर  पंक्तियों के लिए बहुत बहुत बधाई 

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on July 31, 2013 at 9:24pm
दो न्याय अगर तो आधा दो 
गर उसमे भी कोई बाधा हो 
तो दे दो केवल पांच ग्राम 
रक्खो अपनी धरती तमाम 
दुर्योधन वह भी दे न सका 
आशीष हरि का ले न सका!
Comment by Sarita Bhatia on July 31, 2013 at 7:52pm

बहुत खुबसूरत यथार्थ को दर्शाती गजल 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 31, 2013 at 3:49pm

जीवन के यथार्थ को व्यक्त करती शानदार ग़ज़ल ..हार्दिक बधाई अरुण जी 

Comment by विजय मिश्र on July 31, 2013 at 1:31pm
"भला इन्सान कोई दूर तक दिखता नहीं है,
बुराई घुल रही तेजी से है अच्छाइयों में," -- सरजमीनी सच को ढंग से उजागर किया आपने . समुची गजल दाद देने योग्य है . बधाई अरुणजी
Comment by अरुन 'अनन्त' on July 31, 2013 at 12:55pm

ह्रदयतल से हार्दिक आभार आदरणीया महिमा श्री जी.

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