मैं वाकिफ हूँ ,हकीकत से, ज़माने की
इसे आदत, है चिढ़ने की,चिढ़ाने की ...
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बहुत मुश्किल हुनर है ये , भला सब को
कहाँ आती कला रिश्ते निभाने की ...
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सज़ा क्या दूँ तुम्हें आखिर बताओ तो
मेरी आँखों से नींदों को चुराने की ...
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बयां इक शेर में, हो सकता है जब सब
ज़रूरत क्या तुम्हें किस्सा सुनाने की ..
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इसे महसूस करिएगा 'अजय' दिल से
मुहब्बत शै नहीं दिखने दिखाने की...
मौलिक व अप्रकाशित ... अजय अज्ञात
Comment
सभी दोस्तों का धन्यवाद
मतले ने ही आकर्षित किया. आगे के सभी अशार अपने हिसाब से बातें करते हैं.
दिल से दाद कह रहा हूँ.
आपने अग़र १२२२ १२२२ १२२२ भी चस्पां कर दिया होता तो नये प्रयासकर्ताओं को आपकी ग़ज़ल के मिसरों की तकनीक को समझने में बहुत कुछ सहुलियत हो सकती है.
आदरणीय सर जबरदस्त ग़ज़ल हुई है सभी शे'र लाजवाब बन पड़े हैं, इस शानदार ग़ज़ल हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें.
बयां इक शेर में, हो सकता है जब सब
ज़रूरत क्या तुम्हें किस्सा सुनाने की ..
सभी शेर बेह्तरीन
सज़ा क्या दूँ तुम्हें आखिर बताओ तो
मेरी आँखों से नींeदों को चुराने की ...kamal ka sher ...saadar badhayee sweekarein
अअ0 अजय जी बहुत सुन्दर गजल सुन्दर भाव और सुन्दर प्रस्तुति ...बधाई
//बयां इक शेर में, हो सकता है जब सब
ज़रूरत क्या तुम्हें किस्सा सुनाने की //
वाह कमाल का शे'र है अजयजी,
इस ग़ज़ल केलिए दाद क़ुबूल फरमाएँ
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