चांदनी फिर पिघलने लगी है
आँसुओं से धुली वो इबारत
गीत बनकर मचलने लगी है।
रोते-रोते हुए पस्त शिशु से,
भावना के विहग सो गये थे
सांझ की डाल सहमी हुई थी,
भोर के पुष्प चुप हो गये थे
फिर अचानक हुई कोई हलचल,
जैसे लहरा गया कोई आंचल
उनके दिल से उठी एक बदली
मेरी छत पे टहलने लगी है।
इक गजल पर तरह दी किसी ने,
भूला मुखड़ा पुनः गुनगुनाया
प्यार से साज की धूल झाड़ी,
मुद्दतों बाद फिर से उठाया
तार छेड़ें अभी या न छेड़ें,
सुर सजायें या कुछ और ठहरें
मन की पंचायतों में इसीपे
कशमकश रोज़ चलने लगी है।
जिस्म ठंडा पड़ा था सुमन का,
कुछ हरारत सी आने लगी है
कब की मुरझा चुकी खुश्बुओं में,
जिन्दगी कुलबुलाने लगी है
गोद में तितलियों को उठाये,
झांक खिड़की से देखा हवा ने
खोल कर बेबसी के किवाड़े
फिर खुले में निकलने लगी है।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
वाह! बहुत खुबसूरत रचना, आदरणीय सुलभ जी, बार बार पड़ने को मन करता है, बहुत बहुत बधाई आपको
क्या बात है, गीत की सुन्दरता के क्या कहने
आदरणीय सुलभ जी! शुभकामनाये लीजिये
सादर !!
वाह! बहुत ही सुन्दर! बहुत ही कसा हुआ गीत! पाठक को टस से मस होने का मौका नहीं दिया। कुछ कहने को शेष नहीं। दस बार सोचा कि कहें क्या! बस हार्दिक आभार!
राणा जी !
अभिवादन !
आपके स्नेह से अभिभूत हूँ
आपका कथन उचित है। यह बात मेरे मन में भी आई थी। कश-म-कश हो चाहिये न कि क-शम-कश जैसा कि है।
पर जब कविता उतरती है तो वह पूरी तरह से हमारे नियंत्रण में नहीं होती है, और जब वह हमारे नियंत्रण में होती है तो वह मात्र तुकबन्दी होकर रह जाती है, किसी भी सर्जना को आत्मा तो कोई अदृश्य सत्ता ही प्रदान करती है। इस सच्चाई से आप भी दो-चार होते ही रहे होंगे। तो बस जैसा उतरा गीत वैसा मैंने पेस्ट कर दिया।
अपेक्षित सुधार किये दे रहा हूँ
आह ..बेहद ख़ूबसूरत गीत ,,सुलभ जी ..ढेर सारी दाद कबूलिये पहले ..फिर आगे की बात रखता हूँ
रोते-रोते हुए पस्त शिशु से,
भावना के विहग सो गये थे
सांझ की डाल सहमी हुई थी,
भोर के पुष्प चुप हो गये थे
फिर अचानक हुई कोई हलचल,
जैसे लहरा गया कोई आंचल
उनके दिल से उठी एक बदली
मेरी छत पे टहलने लगी है।
एक एक बिम्ब आनंद्दाई है .....रोते रोते शिशु सा पस्त होना ....अपने आप में ही एक सम्पूर्ण गीत है
अगले दो बंद में भी ....कुछ इसी तरह की कारीगरी की गई है .........मन की पंचायत और गोद में तितली.......बस कमाल है
इस गीत ने मंच को समृद्ध किया है|
बहुत बहुत बधाई|
एक सुझाव है .....पसंद आये तो रखें अन्यथा उड़ा दें,,,,,,,"कशमकश" को गलत वज्न में बांधा गया है
उस पंक्ति को (इक कशमकश सी चलने लगी है।)
कशमकश कोई चलने लगी है " करने से कैसा रहेगा..
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online