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ओस की बूँदें//ग़ज़ल//कल्पना रामानी

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सुनहरी भोर बागों में, बिछाती ओस की बूँदें!

नयन का नूर होती हैं, नवेली ओस की बूँदें!

 

चपल भँवरों की कलियों से, चुहल पर मुग्ध सी होतीं,

मिला सुर गुनगुनाती हैं, सलोनी ओस की बूँदें!

 

चितेरा कौन है? जो रात, में जाजम बिछा जाता,

न जाने रैन कब बुनती, अकेली ओस की बूँदें!

 

करिश्मा है खुदा का या, कि ऋतु रानी का ये जादू,

घुमाकर जो छड़ी कोई, गिराती ओस की बूँदें!

 

नवल सूरज की किरणों में, छिपी होती हैं ये शायद,

जो पुरवाई पवन लाती, सुधा सी ओस की बूँदें!

 

टहलने चल पड़ें साथी, निहारें रूप  प्रातः का,

न जाने कब बिखर जाएँ, फरेबी ओस की बूँदें!

 

मौलिक व अप्रकाशित

 

कल्पना रामानी

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Comment

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Comment by Abhinav Arun on August 8, 2013 at 1:06pm

चितेरा कौन है? जो रात, में जाजम बिछा जाता,

न जाने रैन कब बुनती, अकेली ओस की बूँदें!

बहुत खूब प्रकृति के सौन्दर्य का बखूबी चित्रण हुआ है हार्दिक बधाई आदरणीया कल्पना जी !

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 8, 2013 at 9:20am

तितलियों और भँवरों की, चुहल से मुग्ध सी होतीं,

सुरों में साथ देती हैं, सुहानी ओस की बूँदें!..................रचना में यह पंक्ति बहुत सुंदर है

आदरणीया कल्पना जी, हार्दिक बधाई स्वीकारें

 

Comment by कल्पना रामानी on August 8, 2013 at 8:44am

आदरणीय योगराज जी, मैं आपके बताए अनुसार संशोधित कर लूँगी। ये सारी बारीकियाँ धीरे धीरे समझ में आती जाएँगी। इसके लिए मैं इस मंच और मार्गदर्शक विद्वानों की हृदय से आभारी हूँ।

सादर

Comment by कल्पना रामानी on August 8, 2013 at 8:39am

मेरी इस रचना को इतनी प्रशंसा मिली, मन बहुत आनंदित हुआ।  आदरणीय विद्वान मित्रों, सौरभ श्रीवास्तवजी, महिमा  जी,वसुंधरा जी, शिज्जु जी, श्याम जुनेजा जी, बसंत नेमा जी, वंदना जी, विनीता जी, आप सबका हृदय से आभार।

Comment by Vinita Shukla on August 7, 2013 at 11:06pm

शब्दों की सुंदर बुनावट, नैसर्गिक सौन्दर्य की छटा समाहित किये हुए, प्रभावी रचना. बधाई आदरणीया.

Comment by Vindu Babu on August 7, 2013 at 6:50pm
मनमोहक आदरेया।
मनोहारी प्राकृति के सानिध्य में रहने से ऐसे अगनित अनुत्तरित प्रश्न मन को कचोटते रहते हैं,बहुत यथार्थ चित्रण किया महोदया इस गजल के माध्यम से।
आपको ढेरों बधाइयां।
सादर
Comment by बसंत नेमा on August 7, 2013 at 3:55pm

गजल का हर शेर है कल्पा  मखमली ओसँ की बूँदे ..

ओस की बूँद की तरह ही  खुबसुरत है रचना  बहुत सुन्दर  आ0 कल्पना जी.. शुभकामनाये बधाई ....................  


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on August 7, 2013 at 3:13pm

ग़ज़ल बेहद प्रभावशाली हुई है आद० कल्पना रामानी जी जिसके लिए तहे दिल से मुबारकबाद देता हूँ. दूसरे शेअर में "तितलियों" को "ति+तलियों" (१+२२) की तरह बाँधा गया है, जबकि असूलन इसे "तित+लियों" (२+२) की तरह महल किया जाना चाहिए था. पाँचवाँ शेअर भी भर्ती का लग रहा है जिसके बगैर भी काम चल सकता था. ज़रा नज़र-ए-सानी फरमाएँ. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on August 7, 2013 at 12:15pm

//टहलने चल पड़ें साथी, निहारें रूप  प्रातः का,

न जाने कब बिखर जाएँ, फरेबी ओस की बूँदें!//

वाह खूबसूरत शेर,
एक और मनमोहक ग़ज़ल तारीफ़ क़ुबूल फरमाएँ आदरणीय कल्पना जी

Comment by Vasundhara pandey on August 7, 2013 at 11:33am

अलसुबह की प्रभाती सी सुन्दर रचना आपकी ...!!

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