सहरा में कहीं खो जायें न हम, आवाज़ हमें देते रहना ।
नयी राहों का नयी मंजिल का, आगाज़ हमें देते रहना ।
माना कि उदासी के सायें कभी हमको घेर भी लेते हैं ,
खुश रहकर जीने का अपना, अन्दाज़ हमें देते रहना ।
जब गिरने लगे ये तनहा मन घनघोर निराशा के तल में,
ऐसे में अपनी उल्फत की, परवाज़ हमें देते रहना ।
भावों की लहर जब उठती है, शब्दों के शहर बह जाते हैं ,
वो प्यार सहेजने को अपने, अल्फ़ाज़ हमें देते रहना ।
जो दिल में हमारे रहती है हम सब तुमसे कह जाते हैं ,
प्रियतम तुम भी अपने दिल के, हर राज़ हमें देते रहना ।
जीवन के फसानों से गुज़रे, जो दिल के तरानों से गुज़रे ,
वो गीत हमें देते रहना , वो साज हमें देते रहना ।
मौलिक व अप्रकाशित
नीरज
Comment
आदरणीया प्राची जी ज़रूर ,
बहुत बहुत आभार आपका ।
आदरणीय विजय भाई
दिन कुछ और हो जाता है
रात कुछ और हो जाती है ।
हमारी गली में आपके आने से
बात कुछ और हो जाती है ।
बहुत बहुत बहुत बहुत
अनुग्रह आपका ।
आदरणीय आशुतोष जी आप की टिपण्णी
से बहुत बहुत अनुग्रहीत हूँ .....
और बहुत बहुत आभार प्रकट करता हूँ ।
बहुत बहुत आभार ।
भाई आदित्य कुमार ।
जी ।
आदरणीय अरुण भाई पहले तो आप का
बहुत बहुत शुक्रिया .........
अभी उर्दू ग़ज़ल कक्षा में सीख रहा हूँ
और जल्दी ही शायद सीख भी जाऊं
फिर बहर भी ज़रूर लिखूंगा ।
अभी तो ग़ज़ल बनती है गुनगुनाने पर
मतलब गाते गाते बन जाती है ....
बहुत बहुत आभार ।
आदरणीय गिरिराज भाई बहुत बहुत बहुत बहुत
शुक्रिया ।
भाई नीरज मिश्रा जी
गज़ल के साथ बह्र भी ज़रूर लिख दिया करें...
जीवन के फसानों से गुज़रे, जो दिल के तरानों से गुज़रे ,
वो गीत हमें देते रहना , वो साज हमें देते रहना ...हमारी भी यही कामना है ..शानदार प्रयास ..
अति सुन्दर रचना ! हार्दिक बधाई आदरणीय भाई नीरज जी !
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