पहचान
हटा कर धूल जब देखा अतीत के आईने ने हमको,
उसने भी न पहचाना और अनजान-सा देखा हमको,
सालों बाद हमसे पूछे बहुत सवाल पर सवाल उसने,
हर सवाल के जवाब में हमने नाम तुम्हारा था दिया।
ऐसा रहा तस्सवुर तुम्हारा इस सूनी ज़िन्दगी पर मेरी,
नींद आए तो देखे यह हर धुँधले ख़वाब में तुमको,
न आए नींद तो अँधेरे में यह अंधे की टूटी लकड़ी-सी,
ढूँढती है यूँ .. यहाँ, वहाँ, हर मोड़, हर चौराहे पर तुमको।
पूछे जो आईना तुमसे तो तुम भी कह देना झूठ उससे,
वह भूल थी तुम्हारी कि हाँ तुमने कभी चाहा था हमको,
वरना ज़िन्द्गी की इन वीरान-सुनसान-तंग गलियों में
इश्क के दर्द से तुम्हारी भी तो कभी कोई पहचान न थी।
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(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय निकोर साहब बहुत सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको!
सुन्दर अति सुन्दर भाव ... आ0 निकोर जी
बहुत सुन्दर निकोर जी !
बधाई आदरणीय-
सुन्दर प्रस्तुति है-
आदरणीय विजय भाई , अति सुन्दर !!!! वाह !!!! क्या बात है !!!! बधाइयाँ
आ0 निकोर सर जी, वाह! //वरना ज़िन्द्गी की इन वीरान-सुनसान-तंग गलियों में
इश्क के दर्द से तुम्हारी भी तो कभी कोई पहचान न थी।// । सुंदर रचना हेतु हृदयतल से बधाई स्वीकारें। सादर,
आदरणीय निकोर जी बहुत सुंदर रचना हेतु बधाई स्वीकारें ।
वाह आदरणीय बहुत सुन्दर अंतिम चार पंक्तियाँ हृदयस्पर्शी बन पड़ी हैं इस सुन्दर रचना हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें
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