रोज़ा, नमाज़, हज औ तिलावत न कर सका
अपने वजूद की मैं हिफाज़त न कर सका
दैरो हरम में आ के तो सजदा किया ज़रूर
लेकिन कभी मैं दिल से इबादत न कर सका
बिकता रहा ज़मीर भी कौड़ी के भाव में
मैं चाहकर भी इसकी हिफ़ाज़त न कर सका
तेरे क़दम भी रुक गए उल्फत की राह में
मै भी अकेला घर से बग़ावत न कर सका
तेरे बदन में देखकर पाकीज़गी की आग
कोई भी शख्स छूने की ज़ुर्रत न कर सका
मैख़ाने में गुज़ार दी 'साहिल' ने सारी उम्र
साक़ी के दिल पे फिर भी हुकूमत न कर सका
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
सुशील भाई , लाजवाब गज़ल , वाह वाह !!
बिकता रहा ज़मीर भी कौड़ी के भाव में
मैं चाहकर भी इसकी हिफ़ाज़त न कर सका ---------- बधाई !!
आ० Shijju Sab, Ramesk Kumar, Sab, Dr Prachi Mam, Vandana Mam, Raz Sab bahut bahut shukriya.
वाह बहुत खूब सुशील सर बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है
मैख़ाने में गुज़ार दी 'साहिल' ने सारी उम्र
साक़ी के दिल पे फिर भी हुकूमत न कर सका
वाह क्या बात है बहुत खु ब । बधाई आपको
बहुत शानदार गज़ल हुई है आ० सुशील ठाकुर जी
हार्दिक बधाई
बिकता रहा ज़मीर भी कौड़ी के भाव में
मैं चाहकर भी इसकी हिफ़ाज़त न कर सका
शानदार भाव हैं ग़ज़ल के
बहुत खूब! अच्छे तेवर के अशआर हैं. मक्ते के वज़न/बह्र को दुबारा देख लें!
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