2122 1212 22
धूप हमको निचोड़ देती है ,
ठंड घुटने सिकोड़ देती है ।
पत्तियों को बड़ी शिकायत है,
ये जड़ें भूमि छोड़ देती हैं।
चर्चा मुद्दे पे जब भी आती है,
जाने क्यूँ राह मोड़ देती है ।
दर खुले ही थे, हमने ये देखा,
ये हवा फिर से भेड़ देती है ।
रहनुमाओं की बातें सुन के तो,
शर्म ख़ुद हाथ जोड़ देती है ।
हाल जैसे ही क़ाबू आता है,
याद क्यों फ़िर से छेड़ देती है ?
मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
चर्चा मुद्दे पे जब भी आती है,
जाने क्यूँ राह मोड़ देती है ।
बहुत बढ़िया आदरणीय गिरिराज सर
वैसे सर छोटा मुँह और बड़ी बात होगी पर मुझे लगता है कि काफिया ओड़ देती है तय हुआ है पहले शेर में लेकिन आगे दो शेरों में यह ऐड के रूप में हो गया यथा भेड़ में .....माफ़ी चाहती हूँ ज्यादा जानकारी नहीं है पर जो महसूस हुआ उसे इंगित करने का दुस्साहस कर रही हूँ कृपया इस लिंक पर व्यंजन काफिया देखिएगा - http://www.openbooksonline.com/group/gazal_ki_bateyn/forum/topics/5...
एक बार फिर आप जैसे वरिष्ठ एवं अनुभवी सदस्य से क्षमा याचना सहित
आदर्णीय शिज्जू भाई , गज़ल को आपकी सराहना मिली ,मेरे लिये बहुत खुशी की बात है !! आपका आभार !!
बहुत बढ़िया आदरणीय गिरिराज सर दाद कुबूल फरमायें
आदरणीय अभिनव अरुन भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हार्दिक आभार !!
आदरणीय सुरेन्द्र भाई , आपकी सराहना और उत्साह वर्धन का हार्दिक आभार !!
आदरणीय ललित भाई , पहले तो गज़ल की सराहना के लिये आपका बहुत बहुत हार्दिक आभार !!!! आप नाक घुसेड़ने जैसी बात कभी न सोचें , मै अभी गज़ल सीख रहा हूँ , आपकी हर सलाह सर आंखो पर !! आपने बहुत उम्दा शेर कहे , मै इसे भी सहेज कर रखूंगा !! मेरी रचना पर ऐसे किसी भी सलाह का मै हार्दिक स्वागत करूंगा !! सादर !!
प्रिय गिरिराज भाई ..सुन्दरऔर सशक्त शेर हुए हैं बहुत बधाई
पत्तियों को यही शिकायत है
शाख क्यों साथ छोड़ देती है
बात मुद्दे पे जब भी आती है
सरजनी राह मोड़ देती है
बड़े शानदार और सशक्त शेर हुए हैं बहुत बधाई इस पुरअसर ग़ज़ल के लिए श्री गिरिराज जी !! पूरी ग़ज़ल मुग्ध कर गयी ,शानदार !!
चर्चा मुद्दे पे जब भी आती है,
जाने क्यूँ राह मोड़ देती है ।
रहनुमाओं की बातें सुन के तो,
शर्म ख़ुद हाथ जोड़ देती है ।
प्रिय गिरिराज भाई ..सुन्दर भाव ..सच में ऐसे बड़े बदलाव देखने को बहुतायत मिलता है सटीक ..
आभार
भ्रमर ५
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