बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२
मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ
महलों को जोर शोर से खलती हैं चींटियाँ
मौका मिले तो लाँघ ये जाएँ पहाड़ भी
तीखी ढलान पे न फिसलती हैं चींटियाँ
रक्खी खुले में यदि कहीं थोड़ी मिठास हो
तब तो न उस मकान से टलती हैं चींटियाँ
पुरखों से जायदाद में कुछ भी नहीं मिला
अपने ही हाथ पाँव से पलती हैं चींटियाँ
शायद कहीं मिठास है मुझमें बची हुई
अक्सर मेरे बदन पे टहलती हैं चीटियाँ
सड़कों पे देखभाल के ‘सज्जन’ चलो, यहाँ
भोजन तलाशने को निकलती हैं चींटियाँ
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
'शायद कहीं मिठास है मुझमें बची हुई
अक्सर मेरे बदन पे टहलती हैं चीटियाँ'
अच्छा शेर कहा है आपने.
अरे! सौरभ जी सचमुच तकाबुले रदीफ़ पर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया था। बहुत जल्द इस शे’र का त्रुटिमुक्त वर्ज़न आपकी आँखो के लिए पेश किया जाएगा। :)
इस मुखर स्नेह के लिए बहुत बहुत आभारी हूँ। स्नेह छत्र यूँ ही तना रहे।
बहुत बहुत शुक्रिया विजय मिश्र जी
बहुत बहुत धन्यवाद डॉ. अनुराग सैनी जी
बहुत बहुत शुक्रिया MAHIMA SHREE जी
बहुत बहुत धन्यवाद अरुन शर्मा 'अनन्त' जी
मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ
महलों को जोर शोर से खलती हैं चींटियाँ
ऐसे मतले वाली ग़ज़ल को आज देख रहा हूँ ?! ..ओह ओह..
मतला के आगे एक और शेर ने ध्यान खीचा..
शायद कहीं मिठास है मुझमें बची हुई
अक्सर मेरे बदन पे टहलती हैं चीटियाँ..
आय हाय ! ये मासूमियत ! कौन न मर जाये ऐ खुदा .. :-))))
और मक्ता में ख़ाम्ख़ाह तकाबुलेरदीफ़ को न्यौत बैठे. रवानी टूटी सी लगी, सो अलग.
वैसे भी, चलो यहाँ को चला करो करने से कोई दिक्कत हो रही हो तो बताइयेगा साहब.
वैसे ये मकता बहुत कुछ चीखता हुआ भी चुपचाप सा दिखता है. समभालना था इसे.
कुल मिला कर बधाई बधाई
दिल से अब तो हमे बजानी होगी सीटियाँ, एक अलग अंदाज़ , बधाई स्वीकारें
मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ
महलों को जोर शोर से खलती हैं चींटियाँ
पुरखों से जायदाद में कुछ भी नहीं मिला
अपने ही हाथ पाँव से पलती हैं चींटियाँ......
वाह शानदार गजल .. बहुत २ बधाई आदरणीय
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