अपना टूटा चश्मा विनोद की ओर बढ़ाते हुए जमना लाल जी ने कहा – “बेटा मेरा चश्मा कई दिनों से टूटा है , और ये पर्चा लो दवाइयाँ भी “.............। विनोद झुँझला गया – “ क्या पिता जी रोज रोज खिट खिट करते रहते हो मेरे पास इन सब फालतू कामों के लिए बिलकुल समय नहीं है , मै नौकरी करूँ उसकी टेंशन झेलूँ कि आपकी समस्या देखूँ ।” जमना लाल जी कहते रह गए कि – “ बेटा ............. । ”
पर बेटे ने न सुना न उनकी ओर देखा बस अपनी धुन मे चलता चला गया । आज वे थोड़ी थोड़ी लकड़ियां ला ला कर इकट्ठी कर रहे थे । बेटा और बहू ने पूछा – “ पिता जी ये सब क्या है ?”
वे बोले – “ मेरी चिता की सामाग्री । मैंने सोचा तुम्हारे पास फालतू कामों के लिए और फालतू लोगों के लिए समय नहीं होगा । “
अप्रकाशित एवं मौलिक
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आदरणीया आन्नपूर्णाजी , ज्यादातर परिवार मे बूढे माँ-बाप की यही स्थिति है , टूटे हुये सोफे की तरह जो पडे रहते है भंडार गृह मे !! बहुत मार्मिक कथा है !! बधाई !! परंतु इसके पीछे कारण दिये जाने वाले संस्कार ही है , जो अब भारतीय नही रह गये हैं , आयातित हो गये हैं ! भारतीयता मे वापस आना ही इसका हल है वर्ना आगे और घना अन्धकार है !!
बहुत ही सुन्दर और मार्मिक लघुकथा, बधाई स्वीकारें आद० अन्नपूर्णा जी.
आह, आज की पारिवारिक ज़िंदगी का एक मर्मस्पर्शी सत्य; ...और उतना ही मर्मस्पर्शी चित्रण. बधाई हो आदरणीया अन्नपूर्णा जी.
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