(1)
हे अबलाबल भगवती, त्रसित नारि-संसार।
सृजन संग संहार बल, देकर कर उपकार।
देकर कर उपकार, निरंकुश दुष्ट हो रहे ।
करते अत्याचार, नोच लें श्वान बौरहे।
समझ भोग की वस्तु, लूट लें घर चौराहे ।
प्रभु दे मारक शक्ति, नारि क्यूँ सदा कराहे ॥
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(2)
प्रणव नाद सा मुखर जी, पाता है सम्मान |
मौन मृत्यु सा बेवजह, ले पल्ले अपमान |
ले पल्ले अपमान , व्यर्थ मुट्ठियाँ भींचता |
बेमकसद यह क्रोध, स्वयं की कब्र सींचता |
नहिं *अधि ना आदेश, मात्र दिख रहा हादसा |
रविकर हृदय पुकार, आज से प्रणव नाद सा ||
*प्रधान
अप्रकाशित / मौलिक
Comment
अच्छी और सार्थ कुण्डलिया हुई हैं, आदरणीय.
सादर बधाइयाँ.
आपकी रचना हमारे लिये प्रेरणा स्रोत है । भाव की गंभिरता को शिल्प की उत्कृष्टता चमकृत कर रहा है । बधाई सह नमन
आदरणीय रविकर सर ..दोनों कुंडलियाँ अलग -२ भाव होते हुए भी .. अपने आप में सम्पूर्ण है ... गजब तो आप लिखते ही ह है आपकी भावभूमि को नमन ..सादर
वाह! दोनों ही कुण्डलियाँ लाजवाब हैं! आपको हार्दिक बधाई!
बहुत सुन्दर आदरणीय रविकर सर जी
दोनों ही रचनाये अपने श्रेष्ट काव्य शौष्ठव को स्वतः ही दर्शा रहीं हैं
कथ्य और शिल्प दोनों ही उत्तम
आदरणीय / आदरणीया
बहुत बहुत आभार आप सभी का-
raki kar ji bahu bahut badhai
आपकी कुंडलियों हमेशा मुझे चमत्कृत किया है ,आदरणीय भाई रविकर जी बहुत मुबारक बाद !!
सुन्दर कुण्डलियाँ .. बधाई
एक नयी सोच और सार्थक प्रयास नारी हित में ! बधाई आपको
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