जुड़ो जमीं से कहते थे जो, वो खुद नभ के दास हो गये
आम आदमी की झूठी चिन्ता थी जिनको, खास हो गये
सबसे ऊँचे पेड़ों से भी ऊँचे होकर बाँस महोदय
आरक्षण पाने की खातिर सबसे लम्बी घास हो गये
तन में मन में पड़ीं दरारें, टपक रहा आँखों से पानी
जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये
बात शुरू की थी अच्छे से सबने खूब सराहा भी था
लेकिन सबकुछ कह देने के चक्कर में बकवास हो गये
ऐसे डूबे आभासी दुनिया में हम सब कुछ मत पूछो
नाते, रिश्ते और दोस्ती सबके सब आभास हो गये
शब्द पुराने, भाव पुराने रहे ठूँसते हर मिसरे में
कायम रहे रवायत इस चक्कर में हम इतिहास हो गये
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया गीतिका 'वेदिका' जी
बहुत बहुत धन्यवाद MAHIMA SHREE जी
एक स्पष्ट, संयत एवं तार्किकता का निर्वहन करती हुई मुकम्मल ग़ज़ल हुई है, आदरणीय धर्मेन्द्रजी. किस शेर को पर क्या कहूँ, एक अनुभव हो रहा है शेर-दर-शेर गुजरना.
सबसे ऊँचे पेड़ों से... ने जहाँ मोह लिया है वही, बात शुरु की थी अच्छे से.. ने ऐसे तथ्य साझा किये हैं जिसे हर सुननेवाला झेलता है और कहने या सुनाने का मौका मिल जानेवाला पतियाता तक नहीं है. भाईजी, रचनाकर्म का पूरा क्षेत्र ऐसे न-पतियाते लोगों से कितना त्रस्त है, अब इस पर क्या कहना !
इसीतरह, ऐसे डूबे आभासी दुनिया में.. ने आज की तल्ख़ सचाई को करीने से साझा किया है, तो, शब्द पुराने, भाव पुराने.. मध्यवर्गीय परिवार के हर मुखिया की कहानी है.
दिल से बधाई लें, आदरणीय.
बधाई बधाई बधाई
भाई ढेरो बधाई ग़ज़ल को इस शनदार ढंग से निभा ले जाने के लिए
इतनी लंबी बहर का सबसे बड़ा खतरा भर्ती के शब्दों का होता है, बल्कि कहना चाहिए कि भर्ती के वाक्यों का खतरा बन जाता है मगर आपकी ग़ज़ल में मुझे एक भी शब्द ऐसा नहीं दिखा जो व्यर्थ ठूसा गया हो ,,,
कहन पर तो टिपिकल सज्जन धर्मेन्द्र की छाप स्पष्ट है ही
कुल मिला कर मैं मजबूर हो जाता हूँ
हर शेर पर एक ही शब्द दिमाग में कौंधता है
// जिंदाबाद //
ऐसे डूबे आभासी दुनिया में हम सब कुछ मत पूछो
नाते, रिश्ते और दोस्ती सबके सब आभास हो गये-----एक सटीक सच्चाई यही तो हो रहा है आजकल
सबसे ऊँचे पेड़ों से भी ऊँचे होकर बाँस महोदय
आरक्षण पाने की खातिर सबसे लम्बी घास हो गये-----शानदार व्यंग्य
बहुत शानदार प्रस्तुति वाह वाह धर्मेन्द्र जी बधाई आपको
आदरणीय सिंह जी
बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है...
सबसे ऊँचे पेड़ों से भी ऊँचे होकर बाँस महोदय
आरक्षण पाने की खातिर सबसे लम्बी घास हो गये.........वाह बेजोड़ कहन ..बहुत सही हकीकत बयानी
हार्दिक शुभकामनाएं
आदरणीय धर्मेन्द्र सर आपकी गज़लें हम जैसे नौसिखिओं को बहुत कुछ सिखा जाती हैं हरेक शेर सच्चाई को बयां करता हुआ अत्यंत सुन्दर बन पड़ा है, बहुत ही उम्दा बेहतरीन ग़ज़ल दिली दाद कुबूल फरमाएं.
आदरणीय धर्मेन्द्र सर सादर प्रणाम
इस बेहतरीन ग़ज़ल के हर इक अशआर में आपकी छाप साफ दिखाई देती है
हर इक अशआर अपने आप में एक कहानी कहता हुआ
इस शानदार ग़ज़ल के लिए दिली दाद हाजिर हैं
जय हो सर जय हो
तन में मन में पड़ीं दरारें, टपक रहा आँखों से पानी
जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये.....वाह! बहुत खूब, गजब का शेर
लाजवाब गजल, तहे दिल से दाद कुबूल कीजिये आदरणीय धर्मेन्द्र जी
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